विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
इस अध्याय में केवल स्थितप्रज्ञ महापुरुष के प्रशिक्षणात्मक पहलू पर बल दिया गया। यह तो गुरुजनों के लिये निर्देश है। वे न भी करें तो उन्हें कोई क्षति नहीं और न ऐसा करने में उनका अपना कोई लाभ ही है। किन्तु जिन साधकों को परमगति अभीष्ट है उनके लिये विशेष कुछ कहा ही नहीं, तो यह कर्मयोग कैसे हैं? कर्म का स्वरूप भी स्पष्ट नहीं है, जिसे किया जाय; क्योंकि ‘यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है’- अभी तक उन्होंने इतना ही बताया। यज्ञ तो बताया नहीं, कर्म का स्वरूप स्पष्ट कहाँ हुआ? हाँ, युद्ध का यथार्थ चित्रण गीता में यहीं पाया जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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