विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
श्रीभगवानुवाच अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। हे परंतप! उन सबको तू नहीं जानताः किन्तु मैं जानता हूँ साधक नहीं जानता, स्वरूपस्थ महापुरुष जानता है, अव्यक्त की स्थितिवाला जानता है। क्या आप सबकी तरह पैदा होते हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, स्वरूप की प्राप्ति शरीर-प्राप्ति से भिन्न है। मेरा जन्म इन आँखों से नहीं देखा जा सकता। मैं अजन्मा, अव्यक्त, शाश्वत हेते हुए भी शरीर के आधारवाला हूँ। अवधू जीवन में कर आसा। शरीर के रहते ही उस परमतत्त्व में प्रवेश पाया जाता है। लेशमात्र भी कमी है, जन्म लेना पड़ता है। अभी तक अर्जुन श्रीकृष्ण को अपने समान देहधारी समझता है। वह अन्तरंग प्रश्न रखता है-क्या आपका जन्म वैसा ही है, जैसा सबका है? क्या आप भी शरीरों की तरह पैदा होते हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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