यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 189

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


श्रीभगवानुवाच
बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।5।।

अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। हे परंतप! उन सबको तू नहीं जानताः किन्तु मैं जानता हूँ साधक नहीं जानता, स्वरूपस्थ महापुरुष जानता है, अव्यक्त की स्थितिवाला जानता है। क्या आप सबकी तरह पैदा होते हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, स्वरूप की प्राप्ति शरीर-प्राप्ति से भिन्न है। मेरा जन्म इन आँखों से नहीं देखा जा सकता। मैं अजन्मा, अव्यक्त, शाश्वत हेते हुए भी शरीर के आधारवाला हूँ।

अवधू जीवन में कर आसा।
मुए मुक्ति गुरु कहे स्वार्थी, झूठा दे विश्वासा।।

शरीर के रहते ही उस परमतत्त्व में प्रवेश पाया जाता है। लेशमात्र भी कमी है, जन्म लेना पड़ता है। अभी तक अर्जुन श्रीकृष्ण को अपने समान देहधारी समझता है। वह अन्तरंग प्रश्न रखता है-क्या आपका जन्म वैसा ही है, जैसा सबका है? क्या आप भी शरीरों की तरह पैदा होते हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं-


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः