श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अवतरणिका
पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य माँगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं की। अतः पांडवों ने माता कुंती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों और कौरवों का युद्ध होना निश्चित हो गया और तदनुसार दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी। महर्षि वेदव्यास जी का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था। उस स्नेह के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा कि ‘युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान संहार होना अवश्यम्भावी है, इसे कोई टाल नहीं सकता। यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूँ, जिसमें तुम यहीं बैठे-बैठे युद्ध को अच्छी तरह से देख सकते हो।’ इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि ‘मैं जन्मभर अन्धा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं दखना नहीं चाहता; परंतु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर सुनना चाहता हूँ।’ तब व्यासजी ने कहा कि ‘मैं संजय को दिव्य दृष्टि देता हूँ, जिससे यह सम्पूर्ण युद्ध को, सम्पूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आयी हुई बातों को भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा ।’ ऐसा कहकर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत में कुल अठारह पर्व हैं। उन पर्वों के अन्तर्गत कई अवान्तर पर्व भी हैं। उनमें से (भीष्म पर्व के अन्तर्गत) यह 'श्रीमद्भगवद्गीतापर्व' है, जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ होकर बयालीसवें अध्याय में समाप्त हो जाता है।
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