सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गूजरी
(प्रभो!) मैं आप पर बार-बार बलिहारी हूँ, अब मुझ पर कृपा कीजिये। आपके चरण-कमलों को छोड़कर मेरे लिये और (कोई आश्रय) स्थान नहीं है। मैं अपवित्र, अकर्मी और अपराधी हूँ; अतः आपके सम्मुख होने में (शरण आने में) लज्जित हो रहा हूँ। लेकिन हे केशव! आप तो कृपालु हैं, करुणानिधि हैं, आपका नाम ही अधमोद्धारण है। (आपको छोड़) किसके दरवाजे पर जाकर खड़ा होऊँ, किसे देखने में मैं भला लगूँगा। मैं तो कामी और कुटिल हूँ और आपका नाम अशरण-शरण है; अतः आपके यहाँ ही मेरा निर्वाह हो सकता है। मैं बहुत ही पापी और मलिन मन हूँ, सेंत-मेंत में (बिना मूल्य) भी बिक नहीं सकता (कोई मुझे पूछने वाला नहीं)। सूरदास जी कहते हैं- (प्रभो!) आपके चरण-कमल पतितों को पावन करने वाले हैं, उन्हें छोड़कर मैं अन्यत्र क्यों जाऊँ। |
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