हँसि बस कीन्ही घोष-कुमारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग रामकली


हँसि बस कीन्ही घोष-कुमारि।
बिवस भई तन की सुधि बिसरी, मन हरि लियौ मुरारि।।
गए स्याम ब्रज-धाम आपनैं, जुवति मदन-सर मारि।
लहर उतारि राधिका-सिर तैं, दई तरुनिनि पै डारि।।
करति विचार सुंदरी सब मिलि, अब सेबहु त्रिपुरारि।
माँगहु यहै देहु पति हमकौं, सूर-सरन बनवारि।।764।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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