हरि, हौं सब पतितनि कौ राजा।
निंदा पर-मुख पूरि रह्यौ जग, यह निसान नित बाजा।
तृष्ना देसऽरु सुभट मनोरथ, इंद्री खड़ग हमारी।
मंत्री काम कुमति दीबे कौ, क्रोध रहत प्रतिहारी।
गज-अहँकार चड्यौ दिग विजयी, लोभ-छत्र-करि सीस।
फौज असत-संगति की मेरैं, ऐसौ हौं मैं ईस।
मोह-मया बंदी गुन गावत, मागध दोष-अपार।
सूर पाप कौ गढ़ दृढ़ कीन्हौ, मुहकम लाइ किवार।।।144।।