हरि-जस-कथा सुनौ चित लाइ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग बिलावल





हरि-जस-कथा सुनौ चित लाइ। ज्‍यौं षट्वांग तरयौ गुन गाइ।
नृप षट्वांग भयौ भुव माहिं। ताके सम द्वितिया कोउ नाहिं।
इक दिन इंद्र तासु घर आयौ। राजा उठि कै सीस नवायौ।
धनि मम गृह, धनि भाग हमारे। जौ तुम चरन कृपा करि धारे।
अब मोकौं जो आज्ञा होइ। आयसु मानि करौ मैं सोइ।
इंद्र कह्यौ, मम करौ सहाई। असुरनि सौं है हमैं लराई।
इंद्रपुरी षट्वांग सिधाए। नाम सुनत सो सकल पराए।
सुरपति सौं नृप आज्ञा माँगी। उन कह्यौ, लेहु कछू बर माँगी।
नृपति कह्यौ, कहौ मरी आइ। बर लैहौं पुनि सीस चढ़ाइ।
दोइ मुहूरति आयु बताई। नृप बोल्‍यौ तब सीस नवाई।
तुरत देहु मोहिं घर पहुँचाइ। तरौं जाइ तहँ हरि-गुन गाइ।
एक मुहूरत मैं भुव आयौ। एक मुहूरत हरि-गुन गायौ।
हरि-गुन गाइ परम पद लह्यौ। सूर नृपति सुनि धीरज गह्यौ।।343।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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