हरि चितवनि चित तै नहिं टरै।
कमलनैन सौ अरुझि रह्यौ मन कहा करौ क्यौ हूँ न निबरे।।
जद्यपि मात पिता मोहि त्रासत भई भवन मैं तृन तै हरे।
तद्यपि यह मन रहै न हटक्यौ बिनु देखै अंतर उर जरै।।
जाकौ बिगरि परयौ मन चचल भली बुरी सिर ऊपर धरै।
'सूरदास' स्वामी सौ मिलि अब को जानै मीठी अरु करै।। 35 ।।