श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप
राधाबल्लभीय सम्प्रदाय में जिस विशुद्ध प्रेम की उपासना की गई है वह अत्यन्त उज्ज्वल एवं रंगीन तत्व है। रसिकों ने इसकी प्रकृति और प्रताप का बड़ा विशद वर्णन किया है, किन्तु कहीं भी इसका पृथक्करण करके इसके विविध अंगों का वर्गीकरण करने की चेष्टा नहीं की है। इन लोगों का मत है कि प्रेम वस्तुत: एक अंगविहीन ‘कौतुक’-अनिर्वचनीय पदार्थ है। यह जहाँ-कहीं भी उदित होता है, इसमें नाना रंग की तरंगें उठती रहती हैं और यह अंग-विहीन होते हुए भी सब अंगों का सुख देता रहता हैं। पल पल औरै और विधि, उपजत नाना रंग। ध्रुवदास जी ने बतलाया है कि शुद्ध प्रेम का स्वरूप उज्जवलता, निर्मलता सरसता, स्निग्धता एवं मृदुता की सीमाओं के मिलने से बनता है। इसमें माधुर्य के मादक अंग नित्य प्रकाशित रहते हैं एवं दुर्लभता की तरंगें उठती रहती हैं। यह नित्य-नूतन, एक-रस एवं नित्य-नई रुचि उत्पन्न करने वाला होता है। यह अत्यन्त अनुपम, सहज, स्वच्छन्द एवं सोलहों कलाओं से सदैव पूर्ण रहता है। संसार में प्रेम की अनेक छटाएँ देखी जाती हैं और जिसकी जैसी रुचि होती है वह इसको वैसा ही समझ लेता है। वास्तव में, अद्भुत और सरस प्रेम वह है जिसके उदय के साथ मन को सम्पूर्ण एकाग्रता प्राप्त हो जाती है। जिसके दु:ख[1] की समता संसार का कोई सुख नहीं कर सकता, उसके सुख की गाति का वर्णन कौन कर सकता है? इस बात को समझ कर प्रेम के ऊपर चौदहों भुवन के राजसुख को न्यौछावर किया जा सकता है। जहाँ लगि उज्जवल निर्मलताई, सरस सनिग्ध सहज मृदुलाई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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