श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी157. महात्मा हरिदास जी का गोलोकगमन
हरिदास जी अत्यन्त ही पिपासु की तरह प्रभु की मकरन्द माधुरी को पी रहे थे। अब उन्होंने पास में बैठे हुए भक्तों की धीरे-धीरे पदधूलि उठाकर अपने काँपते हुए हाथों से शरीर पर मली। उनकी दोनों आँखों की कोरों में से अश्रुओं की बूँदें निकल-निकलकर पृथ्वी में विलीन होती जाती थीं। मानों वे नीचे के लोक में हरिदास-विजयोत्सव का संवाद देने जा रही हों। उनकी आँखों के पलक गिरते नहीं थे, जिह्वा से धीरे-धीरे ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ इन नामों को उच्चारण कर रहे थे। देखते-ही-देखते उनके प्राण-पखेरू इस जीर्ण-शीर्ण कलेवर को परित्याग करके न जाने किस लोक की ओर चले गये। उनकी आँखें खुली-की-खुली ही रह गयीं, उनके पलक फिर गिरे नहीं। मीन की तरह मानो वे पलकहीन आँखें, निरन्तररूप से त्रैलोक्य को शीतलता प्रदान करने वाले चैतन्यरूपी जल का आश्रय ग्रहण करके उसी की ओर टकट की लगाये अविच्छिन्नभाव से देख रही हैं। सभी भक्तों ने एक साथ हरिध्वनि की। महाप्रभु उनके प्राणहीन कलेवर को अपनी गोदी में उठाकर जोरों के साथ नृत्य करने लगे। सभी भक्त रुदन करते हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की हृदयविदारक ध्वनि से मानो आकाश के हृदय के भी टुकड़े-टुकड़े करने लगे। उस समय का दृश्य बड़ा ही करुणा जनक था। जहाँ श्री चैतन्य हरिदास के प्राणहीन शरीर को गोदी में लेकर रोते-रोते नृत्य कर रहे हों वहाँ अन्य भक्तों की क्या दशा हुई होगी, इसका पाठक ही अनुमान लगा सकते हैं। उसका कथन करना हमारी शक्ति के बाहर की बात है। |