श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी161. श्री रघुनाथ भट्ट को प्रभु की आज्ञा
हृदय में श्री गोविन्द का ध्यान था, जिह्वा सदा हरि रस का पान करती रहती थी। साधुओं का सत्संग और ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन बिताना इससे बढ़कर संसार में सुखकर जीवन और हो ही क्या सकता है? मनीषियों ने संसार की सभी वस्तुओं को भयप्रद बताकर केवल एक वैराग्य को ही भयरहित माना है। ऐसा जीवन बिताना ही सर्वश्रेष्ठ वैराग्य है जैसा कि राजर्षियोगिराज भर्तृहरि ने कहा है– भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं अर्थात ‘भक्त भयहारी भगवान के पादपद्मों में प्रीति हो। इस शरीर को नाशवान समझकर इसके प्रति अप्रीति हो। संसारी भाई, बन्धु तथा कुटुम्बियों में ममता न हो और हृदय में कामजन्य वासना का अभवा हो, कामिनी के कमनीय कलेवर को देखकर उसमें आसक्ति न होती हो, तथा संसारी लोगों के संसर्गजन्य दोष से रहित पवित्र और शान्त–विजन वन में निवास हो तो इससे बढ़कर वांछनीय वैराग्य और हो क्या सकता है? सचमुच जो स्त्री संसर्ग से रहित होकर एकान्त स्थान में ब्रह्मचर्य पूर्वक वृन्दावन विहारी का ध्यान करता हुआ अपने समय को बिता रहा है, वह देवताओं का भी वन्दनीय है, उसकी पदधूलि इस समस्त पृथ्वी को पावन बना देती है, वह नररूप में साक्षात नारायण है, शरीर धारी ब्रह्म है और वैकुण्ठ पति का परम प्रिय प्रधान पार्षद है। |