नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
23. महर्षि मार्कण्डेय–वर्षगाँठ
अन्त में मैंने दुग्ध-पात्र उठाया और इन अपने आराध्य के मुख की ओर ले जाने लगा- 'आप तनिक पी लो तो मैं आपकी पद्मगन्धा का यह पय आज आकण्ठ तृप्त होकर पीऊँगा।' व्रजराज ने दोनों चरण पकड़ लिये मेरे- 'आपका परम-पावन प्रसाद आज इसे प्राप्त होना चाहिए!' मैं क्या करता। मैंने कातर नेत्रों से महर्षि शाण्डिल्य की ओर देखा- 'मुझे महामृत्यु के मुख से निकलकर अमरत्व प्रदान करने वाले भगवान पुरारि भी जिनका चरणोदक सहर्षि सिर पर धारण करते हैं.....!' महर्षि शाण्डिल्य के नेत्र भर आये। मेरी विह्वलता वे समझ सकते थे; किंतु यही विवशता उनकी भी थी। वे मेरा समर्थन नहीं कर सकते थे। उन्होंने अञ्जलि बाँधकर मुझसे बहुत विनय पूर्वक कहा- 'आप नैवेद्य स्वीकार करें! आप और हम सभी जिनके आदेशों का पालन करने को विवश हैं, उनकी लीला के अनुरूप ही हमें अभिनय करना है। श्रीव्रजराज अपने कुमार को आपका यह प्रसाद देने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हैं।' मैंने पात्र अधरों से लगा लिया। मैं कल्पान्त जीवित रहूँगा; किंतु यह पुनीत पय-पान पुन: तो सृष्टि में सुलभ नहीं होने वाला है। मैं पीता रहा-पीता रहा और श्रीनन्दराय उल्लसित होकर पात्र पूर्ण करते रहे। वे आह्लाद में मग्न थे कि मैंने भरपेट उनके यहाँ दूध पिया। अब इस अमृत के स्वाद को कैसे समझाऊँ? कहाँ समता है इसकी? दुग्ध पीकर मैंने आचमन किया। उठ खड़ा हुआ विदा होने को तो मुझे पुष्पाञ्जलि अर्पित की व्रजराज ने। मेरे लिए यह देखना सम्भव नहीं था कि पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को मेरा उच्छिष्ट दूध दिया जाय और वह तो स्वयं अनन्त प्रभु दाऊ को तथा सभी बालकों को दिया जाना था। मर्यादा महान निष्ठुर होती है- मैं केवल देखने से बच सकता था। |
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