नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
सुरों को सन्तुष्ट करने के लिए मानव कितनी महान श्रद्धा के साथ कितना श्रम करता है, कितनी सामग्रियाँ, कितने नैवेद्य किन-किन श्रमसाध्य विधियों से बनाता है, अपने उपभोग के सर्वोत्तम पदार्थ कैसे सहज भाव से अग्नि की आहुति करता है, यह समीप से देखने का सुअवसर मिला मुझे। सुरों के सुख, विलास के पीछे मानव का इतना बलिदान- मुझे आज लगा कि क्यों सत्त्व वृत्ति, तेजोदेह, सुरभिग्राही होेने पर भी सुर सर्वेश से दूर हैं और क्यों नर-को उन नारायण ने अपना सखा स्वीकार किया है। वस्तुत: मानव महान है- सृष्टि में सर्वोपरि है मानव। सुरों के सौन्दर्य, सम्पत्ति, शक्ति, ऐश्वर्य की नगण्यता मुझ पर स्पष्ट हो गयी। लेकिन मैं यहाँ रह नहीं सकती। सर्वेश नारायण ने मुझे स्वर्ग का उपहार बना दिया है। यहाँ का यह जो कुछ समय मुझे मिला, मेरे देव-जीवन में भी यह दुर्लभ है। बहुत कार्य है। सब व्यस्त हैं। अद्भुत है गोकुल! कोई प्रमाद नहीं करती। मुझ जैसी अनभ्यस्ता, अकुशल की ओर भी कोई उपालम्भ की दृष्टि नहीं उठाती। मैं पदार्थ उठाकर देने-धरने में में भी यहाँ दुर्बल हूँ, किंतु सब सहायता, सहानुभूति देती हैं। सबका प्रयत्न है कि वही अधिक से अधिक कार्य कर ले और दूसरी सब विश्राम करें मुझे अनेकों ने टोका- 'तू इतना श्रान्त क्यों होती है? तनिक विश्राम कर ले!' माता ब्रजेश्वरी तो उठ गयीं अपने अंकधन को सुलाकर। मैं उस कक्ष की ओर चल पड़ी थी। भगवती शारदा ने कर पकड़ा- 'तू इतनी उतावली करेगी तो दूर भेज दी जायगी। दूर से ही यदा-कदा दर्शन कर लिया कर! हम सब काम समुत्सुक नहीं है; किंतु कोई वहाँ जाय, यह मैया को सहन नहीं होगा?' ये आनन्दघन, केवल चिद-विग्रह; किंतु क्या विचित्र लीला है। नेत्र बन्द किये निद्रित हैं। योग निद्रा केवल शेषशायी की पलकों का प्रलय में स्पर्श पाती है और ये परम पुरुष सो रहे हैं? झीने पीतपट से छनकर आती इनके इन्द्रनीय श्रीविग्रह की कान्ति, अलकों में-से घिरा चन्द्रमुख, वस्त्र से बाहर शिथिल पड़े अरुण पद्मपाणि-भगवती शारदा संकेत से सचेत न करतीं तो मैं पता नहीं कब तक एकटक देखती रहती। कुछ भी हो पुत्री पिता के घर मेें असावधान हो ही जाती है। मैं बार-बार भूल जाती हूँ कि मैं यहाँ सेविका के रूप में हूँ। |
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