भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार तत्त्व
अवतार किसका होता है? किस भगवद्धाम से होता है? जब जीव और जगत-प्रकृति भी परमात्मा ही बना है- ये दोनों भी उसी के रूप-स्वभाव हैं तो सभी तो अवतार हैं। इसमें विशिष्ट ही अवतार का क्या अर्थ? सम्पूर्ण दृश्य सच्चिदानन्दघन भगवत्स्वरूप ही है, यह सत्य होने पर भी जैसे व्यवहार में जड़-चेतन का, पशु-पक्षी, कीट-पतंग और मनुष्य का तथा मनुष्यों में सत्-असत् का, ज्ञानी-अज्ञानी का भेद होता है, ऐेसे ही सामान्य जीव का और अवतार का भेद होता है ओर अवतारों में भी अन्तर होता है। जब सत्ता घनीभूत होकर तमोगुणी बनी और सृष्टि काल में प्रकृति में गुणों के बैषम्य से जड़-चेतन का भेद हुआ तो कहां-कितनी चेतना अभिव्यक्त हो रही है, इस तारतम्य को देखना ही पड़ेगा। जहाँ चेतना के व्यक्त होने का कोई चिन्ह नहीं है, उसे जड़ द्रव्य कहते हैं। सम्पूर्ण विशुद्ध चेतन को षोडश कलापूर्ण कहा जाता है। यह कला की कल्पना चेतन में उसके व्यक्त होने के तारतम्य को सूचित करने के लिए की गयी है। वस्तुत: तो चेतन निष्कल है उस अद्वय परमतत्व में कला की कल्पना जगत को लेकर ही की जाती है। तृण से तरू पर्यन्त उद्भिज पदार्थों में चेतन की एक कला का जागरण है। अत: ये अन्तश्चेतन कहे जाते हैं। वैसे इनमें भी आहार-ग्रहण, निद्रा तथा स्नेह-द्वेषके प्रभाव को ग्रहण करने की क्षमता होती है। जहाँ केवल अन्नमय कोश का विकास है वे उद्भिज एक कलायुक्त हैं। दो कलायुक्त वे प्राणी हैं जिनमें प्राणमय कोश का भी विकास है; वे स्वेदज जीव सक्रिय होते हैं। तीन कला का विकास उनमें है, जिनमें मनोमय कोश जागरण पा चुका है; ये अण्डज प्राणी संकल्प-विकल्प भी करते हैं। पिण्डजों में विज्ञानमय कोश भी प्रकट हो जाता है, अत: इनमें चार कला का विकास कहा जाता है; ये प्राणी बुद्धि का उपयोग करते देखे जाते हैं। जरायुज-केवल मनुष्य हैं जिसमें आनन्दमय कोश भी विकसित है। केवल मनुष्य ही अपना आनन्द हास्य के द्वारा व्यक्त कर सकता है और बिना दैहिक चेष्टा के आनन्दानुभव कर सकता है। दूसरे प्राणी शान्त रहेंगे अथवा दैहिक चेष्टा से अपना आनंद व्यक्त करेगें। सामान्य मनुष्यों-वन्यमानवों तथा निम्नवर्ग में चेतन की पांच कला विकसित रहती हैं। पशु-प्राय होने पर भी वे पशु से कुछ अधिक तो होते ही हैं। मनुष्य ही कर्मयोनि है। दूसरे सब प्राणी भोगयोनि के प्राणी हैं। वे करते है-भोगते हैं। किन्तु ‘मैंने यह किया’ इस संस्कार का भार नहीं ढोते। मनुष्य ही इस कर्तृत्व के अहंकार को ग्रहण करके संस्कार-भार संग्रह करता रहता है। मनुष्यों में बुद्धि का, भावना का, प्रतिभा का तारतम्य तुम देखते ही हो। यह इसलिए है कि मानव में पांच से आठ कला तक चेतन की अभिव्यक्ति हो सकती है। छ: कला सामान्यत: सुसंस्कृत मानव समाज में होती है। सात कला का विकास होने पर मनुष्य में विशेष प्रतिभादि दीखती है।[1] ये समाज में सर्वसामान्य की अपेक्षा विशिष्ट पुरुष होते हैं ओर आठ कला विकास प्राप्त करने वाले लोकोत्तर महापुरुष कहे जाते हैं। ये धरा पर यदा-कदा दीखते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमेदूर्जितमेव वा।
तत्त्वदेवावगच्छ त्वं मम तेजोड्श सम्भवम्॥ - ↑
ऋषयो मनवो देवो मनुपुत्रा महौजस:।
कला: सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथ॥
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