भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपूर्ण स्वयंवर
इस बार मगधराज तथा उसके अन्य प्रबल समर्थकों का समाचार देने वाले चर लगभग एक साथ मथुरा आए। मथुरा की राजसभा में ही उन्होंने समाचार दिया–अनेक देशों के नरेश विदर्भाधिप महाराज भीष्मक के पुत्र रुक्मी का निमंत्रण पाकर उनकी राजधानी कुण्डिनपुर जा रहे हैं। महाराज भीष्मक की प्रख्यात सुंदरी कन्या रुक्मिणी का स्वयंवर होने वाला है। रुक्मी ने मथुरा निमंत्रण नहीं भेजा, क्योंकि वह मगधराज का समर्थक है। एक चर ने बतलाया। कन्या के स्वयम्वर में बिना बुलाए भी जाने का क्षत्रिय-नरेशों, राजकुमारों का अधिकार है। यादव–तरुणों ने कहा–हम कोल भील आदि तो नहीं हैं कि उद्योगहीन होकर बैठे रहेंगे। हम वहाँ अवश्य चलेंगे। भगवान वासुदेव को इस स्वयम्वर सभा में भाग लेना चाहिए। महाराज, आप मेरे अग्रज के साथ मथुरा में ही विराजें। श्रीकृष्ण चंद्र ने विनय पूर्वक कहा–यदुकुल के तरुणों को लेकर मैं कुण्डिनपुर जाता हूँ। तुम वहाँ से रिक्त हस्त लौटने तो नहीं जा रहे हो? भगवान बलराम उठ खड़े हुए–आवश्यक हुआ तो बलपूर्वक कन्या ले आना है। रुक्मिणी मेरे अनुजवधू होगी। वहाँ जरासन्ध अपने सब समर्थकों के साथ आ रहा है और युद्ध की संभावना है, ऐसी अवस्था में तुम्हें एकाकी कैसे जाने दिया जा सकता है। मथुरा के जव सब विरोधी वहाँ एकत्र हो रहे हैं, यहाँ मेरी उपस्थिति किसलिए? यहाँ तो इस समय कोई भय नहीं है। श्रीकृष्ण, मैं साथ चल रहा हूँ। समस्त विरोधियों में यादव–महारथियों के साथ रह कर रोक लूंगा। तुम्हें केवल कन्या ले आना है। यादवों का समुदाय कुण्डिनपुर पहुँचे, इससे पूर्व ही समस्त दूसरे राजा वहाँ आ चुके थे। नगर से बाहर दूर–दूर तक जल की सुविधा देख कर उन्होंने अपने शिविर डाले थे। सब ससैन्य आए थे,क्योंकि प्राय: स्वयम्वर के अवसरों पर युद्ध की संभावना रहती थी। गज, अश्व, रथ आदि के असंख्य यूथ जहां–तहां ऐसे छाए थे कि नगर से बाहर दूर तक का प्रदेश जनपद बन गया था। अचानक आकाश में भयानक अन्धड़ के आने का शब्द हुआ–विचित्र शब्द। सस्वर सामगान की उच्चतम ध्वनि उस अंधड़ से आ रही थी। दिशाएं स्वर्णिम प्रकाश से पीली हो उठीं। इतना प्रबल वायु का वेग कि अश्व, गज तथा जो भी मनुष्य खड़े थे, सब भूमि पर गिर पड़े। शिविर उखड़ गए और वृक्ष टूट गिरे। विनता–नंदन गरुड़ आए। यादव समाज के समीप पहुँच कर उन्होंने अपना वेग कम किया और भूमि पर उतर गए। तत्काल मानव रूप धारण किया इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ गरुड़ ने, किंतु उनके पंख बने रहे। श्रीकृष्ण चंद्र के सम्मुख आकर उन्होंने प्रणिपात किया। श्रीकृष्ण ने उन्हें उठाया। आदरपूर्वक साथ ले लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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