श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
अवतरणिका श्रीभगवान सातवें अध्याय में अपने हृदय की बात- विज्ञानसहित ज्ञान कह रहे थे। जब बीच में ही आठवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन के प्रश्न करने पर अपनी बात कहने में कुछ परिवर्तन हुआ, तब भगवान ने पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहने के लिए नवें अध्याय का विषय आरंभ किया और उसकी समाप्ति भगवत्परायणता में की। फिर भी भगवान के मन में और कहने का भाव रहा। उन्हें अपने कथन पर संतोष नहीं हुआ। जैसे भक्त को भगवान की बात सुनते हुए तृप्ति नहीं होती[1], ऐसे ही अपने प्यारे भक्त अर्जुन के प्रति अपने हृदय की बात कहते-कहते भगवान को तृप्ति नहीं हो रही है। कारण कि भगवान के हृदय की गोपनीय बात भक्त के सिवाय संसार में और कोई सुनने वाला नहीं है। अतः भगवान अर्जुन के बिना पूछे ही कृपा पूर्वक दसवें अध्याय का विषय आरंभ कर देते हैं। भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः । अर्थ- श्रीभगवान बोले- हे महाबाहो अर्जुन! मेरे परम वचन को तुम फिर सुन, जिसे मैं तुम्हारे हित की कामना से कहूँगा; क्योंकि तुम मेरे में अत्यन्त प्रेम रखते हो। व्याख्या- ‘भूयः एव’- भगवान की विभूतियों को तत्त्व से जानने पर भगवान में भक्ति होती है, प्रेम होता है। इसलिए कृपावश होकर भगवान ने सातवें अध्याय में[2] कारण रूप से सत्रह विभूतियाँ और नवें अध्याय में[3] कार्य-कारण रूप से सैंतीस विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बताने के लिए[4] तथा[5] भक्ति का और भी विशेषता से वर्णन करने के लिए भगवान ‘भूयः एव’ कहते हैं। ‘श्रृणु मे परमं वचः’- भगवान के मन में अपनी महिमा की बात, अपने हृदय की बात, अपने प्रभाव की बात कहने की विशेष आ रही है।[6]। इसलिए वे अर्जुन से कहते हैं कि ‘तू फिर मेरे परम वचन को सुन’। दूसरा भाव यह है कि भगवान जहाँ-जहाँ अर्जुन को अपनी विशेष महत्ता, प्रभाव, ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात अपने-आपको खोल करके बताते हैं, वहाँ-वहाँ वे परम वचन, रहस्य आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं; जैसे- चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘रहस्यं ह्येतदुत्तमम्’ पदों से बताते हैं कि जिसने सूर्य को उपदेश दिया था, वही मैं तेरे रथ के घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। अठारहवें अध्याय के चौंसठवें श्लोक में ‘श्रृणु मे परमं वचः’ पदों से यह परम वचन कहते हैं कि तू संपूर्ण धर्मों का निर्णय करने की झंझट को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा; मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।[7] यहाँ ‘श्रृणु मे परमं वचः’ पदों से भगवान का आशय है कि प्राणियों के अनेक प्रकार के भाव मेरे से ही पैदा होते हैं और मेरे में ही भक्तिभाव रखने वाले सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु- ये सभी मेरे मन से पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूल में मैं ही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 10:18
- ↑ 8वें श्लोक से 12वें श्लोक तक
- ↑ 16 वें श्लोक से 19वें श्लोक तक
- ↑ इस (दसवें) अध्याय में भगवान ने चौथे से छठे श्लोक तक अपनी पैंतालीस विभूतियाँ बतायी हैं।
- ↑ गीता 8।14 एवं 9।22, 34 में कही हुई
- ↑ भगवान कहते हैं कि मैं अपनी तरफ से उन भक्तों पर कृपा करके उनको ज्ञान दे देता हूँ- ‘तेषामेवानुकम्पार्थम्’ (गीता 10।11)- यह भगवान का परम वचन है।
- ↑ गीता 18:66
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