श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । व्याख्या- [मनुष्य के कल्याण के लिए भगवान ने गीता में खास बात बतायी कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति को लेकर चित्त में समता रहनी चाहिए। इस समता से मनुष्य का कल्याण होता है। अर्जुन पापों से डरते थे तो उनके लिए भगवान ने कहा कि ‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर तुम युद्ध करो, फिर तुम्हारे को पाप नहीं लगेगा’।[1] जैसे दुनिया में बहुत से पाप होते रहते हैं, पर वे पाप हमें नहीं लगते; क्योंकि उन पापों में हमारी विषम-बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत समबुद्धि रहती है। ऐसी ही समबुद्धि पूर्वक सांसारिक काम करने से कर्मों से बंधन नहीं होता। इसी भाव से भगवान ने इस अध्याय के आरंभ में कहा है कि जो कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्य कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है। इसी कर्मफल त्याग की सिद्धि भगवान ने ‘समता’ बतायी[2]। इस समता की प्राप्ति के लिए भगवान ने दसवें श्लोक से बत्तीसवें श्लोक तक ध्यानयोग का वर्णन किया। इसी ध्यानयोग के वर्णन का लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।] ‘योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन’- यहाँ अर्जुन ने जो अपनी मान्यता बतायी है, वह पूर्वश्लोक को लेकर नहींं है, प्रत्युत ध्यान के साधन को लेकर है। कारण कि बत्तीसवाँ श्लोक ध्यानयोग द्वारा सिद्ध पुरुष का है और सिद्ध पुरुष की समता स्वतः होती है। इसलिए यहाँ ‘यः’ पद से इस प्रकरण से पहले कहे हुए योग (समता-) का संकेत है और ‘अयम्’ पद से दसवें श्लोक से अट्ठाईसवें श्लोक तक कहे हुए ध्यानयोग के साधन का संकेत है। ‘एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्’- इन पदों से अर्जुन का यह आशय मालूम देता है कि कर्मयोग से तो समता की प्राप्ति सुगम है, पर यहाँ जिस ध्यानयोग से समता की प्राप्ति बतायी है, मन की चंचलता के कारण उस ध्यान में स्थिर स्थिति रहना मुझे बड़ा कठिन दिखायी देता है। तात्पर्य है कि जब तक मन की चंचलता का नाश नहीं होगा, तब तक ध्यानयोग सिद्ध नहीं होगा और ध्यानयोग सिद्ध हुए बिना समता की प्राप्ति नहीं होगी। संबंध- जिस चंचलता के कारण अर्जुन अपने मन की दृढ़ स्थिति नहींं देखते, उस चंचलता का आगे के श्लोक में उदाहणर सहित स्पष्ट वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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