श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष
क्रोध से महर्षि दुर्वासा काँपने लगे थे। श्रीकृष्ण ने उनके चरणों पर मस्तक रख दिया। महर्षि दुर्वासा जहाँ अत्यन्त क्रोधी है, वही उनका क्रोध क्षण स्थायी है। वे क्षमामूर्ति बन जाते हैं दूसरे ही क्षण। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र को उठाया- 'क्षमा तो मुझे माँगनी चाहिये। मैं बहुत दुःखी था, अतः मेरे कठोर बचनों पर ध्यान मत देना।' राजधानी लौटकर दोनों ने अपने पिता से राजसूय यज्ञ करने को कहा। ऐश्वर्य किसे बुरा लगता है। राजा ब्रह्मदत्त ने पुत्रों की बात स्वीकार कर ली। उनके पुत्र महेश्वर के वरदान से अजेय हो चुके थे। केवल जनार्दन ने कहा- 'भीष्म, जरासन्ध, बाह्लीक तथा यादवों के रहते ऐसा दुस्साहस करना उचित नहीं है।' हंस ने कहा- 'जनार्दन! तुमको मेरी शपथ है। मेरी बात का उत्तर मत देना। 'आप हंस को कर दें। ऐसा कहता मैं निर्लज्ज एवं मूर्खों में अग्रणी समझा जाऊँगा।' तीव्रगामी अश्व पर चढ़कर जनार्दन चल पड़े; किन्तु उनका हृदय मथित हो रहा था। भय, लज्जा पर साथ ही उत्कण्ठा- 'मुझे उन सर्वेश्वर के दर्शन होंगे। उनसे कर के रूप में नमक देने की बात कहना बहुत भयानक है; किन्तु वे सर्वज्ञ, भक्तवत्सल क्या मेरा भाव, मेरी विवशत नहीं समझेंगे।' जनार्दन द्वारिका पहुँचे। द्वारपाल की सहायता से सुधर्मा सभा में जाकर भगवान संकर्षण एवं श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन किये। दोनों को प्रणाम करके परिचय दिया- 'मैं ब्राह्मणबन्धु जनार्दन राजा ब्रह्मदत्त के पुत्र हंस-डिम्बक का दूत आपकी सेवा में आया हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज