गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
दसवां अध्याय
सोमप्रभात भगवान कहते हैं-दोबारा भक्तों के हित के लिए कहता हूं, सो सनु। देव और महर्षि गण तक मेरी उत्पत्ति नहीं जानते हैं, क्योंकि मेरे लिए उत्पन्नता ही नहीं है। मैं उनकी और अन्य सब की उत्पत्ति का कारण हूँ। जो ज्ञानी मुझे अजन्मा और अनादि रूप में पहचानते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि परमेश्वर को इस रूप में जानने और अपने को उसकी प्रजा अथवा उसके अंश की भाँति पहचानने पर मनुष्य की पापवृत्ति नहीं रह सकती। पापवृत्ति का मूल ही निज संबंधी अज्ञान है। जैसे प्राणी मुझसे पैदा हुए हैं, वैसे उनके भिन्न- भिन्न भाव भी, जैसे क्षमा, सत्य, सुख, दु:ख, जन्म-मृत्यु भय-अभय आदि भी मुझसे उत्पन्न हुए हैं। यह सब मेरी विभूति है। जो यह जान लेते हैं, उनमें सहज ही समता उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि वे अहंता को छोड़ देते हैं। उनका चित्त मुझमें ही पिराया हुआ रहता है, वे मुझे अपना सब कुछ अर्पण करते हैं, परस्पर मेरे विषय में ही वार्तालाप करते हैं, मेरा ही कीर्तन करते हैं और संतोष तथा आनंद से रहते हैं। इस प्रकार जो मुझे प्रेमपूर्वक भजते हैं और मुझमें ही जिनका मन रहता है, उन्हें मैं ज्ञान देता हूँ और उसके द्वारा वे मुझे पाते हैं। तब अर्जुन ने स्तुति की- आप ही परब्रह्म हैं, परमधाम हैं, पवित्र हैं, ऋषि आदि आपको आदिदेव, अजन्मा, ईश्वर रूप से भजते हैं, ऐसा आप ही कहते हैं। हे स्वामी, हे पिता, आपका स्वरूप कोई जानता नहीं है, आप ही अपने को जानते हैं। अब मुझसे अपनी विभूतियां और साथ ही यह कहिये कि आपका चिंतन करते हुए मैं आपको कैसे पहचान सकता हूं? भगवान ने जवाब दिया- मेरी विभूतियां अनंत हैं, उनमें से थोड़ी खास-खास तुमसे कह देता हूँ। सब प्राणियों के हृदय में रहा हुआ मैं हूँ। मैं ही उनकी उत्पत्ति, उनका मध्य और उनका अंत हूँ। आदित्यों में विष्णु मैं, उज्ज्वल वस्तुओं में प्रकाश देने वाला सूर्य मैं, वायुओं में मरीचि मैं, नक्षत्रों में चंद्र मैं, वेदों में सामवेद मैं, देवों में इंद्र मैं, इंद्रियों में मन मैं, प्राणियों में चेतन- शक्ति मैं, रुद्र में शंकर मैं, यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं, दैत्यों में प्रह्लाद मैं, पशुओं में सिंह मैं, पक्षियों में गरुड़ मैं और छल करने वालों में द्यूत[1] भी मुझे ही जान। इस जगत में जो कुछ होता है, वह मेरी मरजी बिना हो ही नहीं सकता। अच्छा और बुरा भी मैं ही होने देता हूं, तभी होता है। यह जानकर मनुष्य को अभिमान छोड़ना चाहिए और बुरे से बचना चाहिए, क्योंकि भले-बुरे का फल देने वाला भी मैं हूँ। तू इतना जान कि यह सारा जगत मेरी विभूति के एक अंशमात्र से स्थित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जुआ
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