नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
'श्रीचरणों से क्या संकोच करूँगा!' नन्दराय ने मेरे पदों पर मस्तक रखा, हाथ जोड़कर बोले- 'मेरा सौभागय कि भाई वसुदेवजी ने मुझे इस सेवा के योग्य माना और रोहिणी भाभी को यहाँ भेजा। उनका सन्देश आ गया था कि 'उनके कुमार के संस्कार में शीघ्रता न की जाय!' उनका आदेश मानना ही चाहिये मुझे। अकारण तो वे कोई आदेश देंगे नहीं। मन मारकर हम रह गये और रोहिणी भाभी के कुमार का नामकरण संस्कार अब-तक नहीं हो सका। वह बालक एक वर्ष से भी बड़ा हो चुका है। अब रोहिणी भाभी मानती नहीं हैं। उनके कुमार का जो अनुचर, अनुज आया है इस घर में आपके आशीर्वाद से, वह आज सौ दिन का हो गया। वह ग्यारह दिन का होने वाला था तभी भाभी ने उसके नाम-करण का आग्रह किया था। उस समय तो मैंने किसी प्रकार टाल दिया; किंतु इधर कई दिनों से वे मुझसे, गृहिणी से, सबसे कह चुकी हैं, रुष्ट होने लगी हैं कि छोटे का संस्कार नामकरण की अन्तिम अवधि सौ दिन बीतने न दी जाय।' मैं आज गृह में नहीं गया। वे सम्मान्या हैं। उनका आदेश अस्वीकार करते मुझे बहुत दु∶ख होता है; किंतु यह भी कैसे किया जा सकता है कि बड़े भाई से पहिले छोटे का संस्कार कर दिया जाय। आप महापुरुष हम गृहान्धकूपमें पतित प्राणियों पर कृपा करने के लिए ही पर्यटन करने निकलते हैं। आज आपके पदार्पण से मेरा गृह पवित्र हो गया। मेरे पितर तृप्त हो गए। अब एक ही प्रार्थना है कि आप दोनों बालकों का नाम-करण संस्कार कर देने की कृपा करें।' नन्दराय की नम्रता, सौजन्य ने मुझे अत्यन्त सन्तुष्ट किया; किन्तु ये उदार व्रजपति बहुत उत्साही हैं। मुझे लगा कि कहीं ये सविधि, सोत्सव संस्कार का आयोजन न करने लगें। अत∶ मैंने कहा- 'व्रजेश्वर! आप जानते ही हैं कि मैं यदुकुल के आचार्य रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हूँ। अब यदि मैं आपके पुत्र का संस्कार कराऊँगा तो उसे वसुदेव- देवकी का पुत्र मानेंगे; क्योंकि देवकी के अष्टम गर्भ से कन्या का होना किसी को भी संगत नहीं लगता है। वसुदेवजी से आपकी प्रगाढ़ मैत्री है। कंस वैसे भी सशंक है पूतना की मृत्यु से। अत∶ मेरे संस्कार करा देने पर तो उसे निश्चय ही हो जायगा कि देवकी का अष्टम पुत्र आपके गृह में है। वह इसे मारने का कोई प्रयत्न उठा नहीं रखेगा। इस प्रकार यह संस्कार तो अनर्थों की परम्परा प्रारम्भ करा देगा। |
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