नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. मधुमंगल-माखन चोरी
यह चूड़ी खनकी। उत्पला छिपकर देख रही थी। तनिक हिली होगी। कन्हाई विशाल के कन्धे से वरूथप की पीठ पर आया और कूदकर भागा। यही भाग चला तो हम सब यहाँ रहकर क्या करते। 'भोजन करके अनन्तर भागा नहीं करते? भोजन करके दौड़ना आयुर्वेद शास्त्र में मना है!' मुझ ब्राह्मण की यह बात कोई नहीं सुनता। सब गोप कुमार हैं और गोपों में ब्राह्मण समान श्रद्धा नहीं होती। लगता है कि सब कहीं स्नान करेंगे जाकर। भोजन करके स्नान? यह व्यतिक्रम मैं नहीं कर सकता। यह उत्पला इतना क्यों हँस रही है? यह तो ऊखल पर चढ़कर नवनीत-पात्र उतारने लगी। अब उसमें धरा क्या होगा? कन्हाई ने सारा नवनीत तो बाँट दिया है। लेकिन यह पगली पात्र लेकर बैठ गयी है इसी भूमि में और जो पात्र में लगा है, चाटने लगी है अँगुली से पोंछकर। यह अन्याय है, इसके लिए दो लोंदे छोड़ देने थे। 'तू चल! मैं तुझे मैया से माखन दिला दूँगा।' मेरी बात पर यह हँसती क्यों हैं? 'तू कैसा भूत बना है, यह तो देख!' कहती तो यह ठीक है; किंतु यह छाछ-दधि-दूध में बैठकर अपनी साड़ी तो आर्द्र कर चुकी। मुझे शरीर पोंछने को इसे दूसरी साड़ी देनी चाहिये। मैं यह कष्ट भी क्यों करूँ? यह इतनी ताड़-जैसी बड़ी है तो नवीन वस्त्र लेकर मेरा शरीर पोंछती क्यों नहीं? यह तो अभी मुझे देख-देखकर हँसती हैं। हँसती हैं छींकोपर टँगे फूटे भाण्डों को और भूमि में भरे इस क्षीरोदधि में कच्छप जैसे लगते भाण्ड-खण्डों को देखकर। अब मेरे श्याम का तो यह दैनिक क्रम बन गया है। कभी किसी के घर और कभी किसी के। कभी ऋषभ हठ करता है, कभी भद्र अथवा देवप्रस्थ कि आज उनके घर का गोरस हम सब सफल करें। मेरे तो सब सखा यजमान हैं। किसी के घर जाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं; किंतु कन्हाई चलता एक ओर को है और फिर कहीं दूसरी ओर मुड़ पड़ता है किसके घर में घुस जायगा, पहिले से मैं भी अनुमान नहीं कर पाता हूँ। 'ये नन्हें बछडे़ तो कूदते-फुदकते भले लगते हैं।' कनूँ की यह बात मुझे भी बहुत प्रिय है। छोटे-छोटे बछड़ों को बाँध रखना कोई भली बात है? भद्र तो बँधे बछडे़ देखते ही खोलने लगता है। बछडे़-बछड़ियाँ जाते कहाँ हैं, हम सब इन्हें खोल देते है़ं तो ये हमें सूँघ-सूँघकर कुदकते रहते हैं। श्याम के साथ ही तो सब लगे रहते हैं। |
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