नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
यह समारोह समाप्त हुआ; किंतु शीघ्र ही हम अपने श्रेष्ठ यजमान से विमुक्त हो गये। पर्जन्य ने विरक्त होकर वन को प्रस्थान किया और यही किया वृहत्सानुपुर के उनके सखा महीभानु ने। उन्होंने भी अपने कुमार को उत्तराधिकार दे दिया था। परीक्षित! यह कितनी विडम्बना थी कि मैं अपने हिमाचल की तपोभूमि त्यागकर गोकुल में ब्रजपति का पौरोहित्य करने आ बसा था और वे व्रजपति जो वय में मुझसे तो पर्याप्त अल्प थे, ब्रह्मा के विधान का वरदान वार्धक्य प्राप्त करके तपोवन चले गये। मुझे उनके वियोग ने उस दिन सृष्टिकर्त्ता के इस अटपटे विधान पर अप्रसन्न ही किया। मुझे अत्यधिक आयु देकर उन्होंने यहाँ भेजा तो क्या इन अत्यन्त श्रद्धास्नेह की मूर्ति को स्थिर तारुण्य नहीं दे सकते थे वे? दे तो यह मैं भी सकता था; किंतु संसार से उपरत होकर सर्वेश की ओर उन्मुख होने में ही मनुष्य का परम श्रेय है, यह घोषणा करने वाला और हृदय से माननेवाला मैं किसी इसी पुण्य-पथ के पथिक की बाधा कैसे बन सकता था। मैं जिनके दर्शन-पूजन के लोभ में यहाँ पुरोहित बनने आया था, वे इनको अपना पूर्वज बनाकर परमपावन करने वाले हैं, यह अनुभूति भी मेरे लिए कुछ करने में बाधक थी। उन सर्वेश की ही इच्छा पूर्ण होनी चाहिए। मैंने ही नहीं, सम्पूर्ण व्रज ने-व्रज के एक-एक जनने और सम्भवत: गायों ने, वृषभों तक ने अनुभव किया कि स्नेह, श्रद्धा, सत्कार, सावधानी सब में पुत्र पिता से बहुत बढ़े-चढ़े हैं। नवव्रजेश पिता से कहीं अधिक विनम्र और अतिशय उदार, सेवा-परायण। पर्जन्य भी व्रजपति थे, यह विस्मृत ही हो जाता यदि नन्दराय उनके ही सुपुत्र न होते। सृष्टि में तो अब सदा के लिए व्रजेश्वर शब्द नन्दराय में रुढ़ हो गया है और व्रजेश्वरी यशोदा का वाचक बन गया है। मैं व्रज में तब आया था, जब पर्जन्य भी युवक ही थे। मैंने उनके पुत्रों के जातकर्म-संस्कार कराये थे और अब उनमें-से मध्यम कुमार नन्दराय व्रजपति थे। शैशव से इन शिशुओं का मैंने पालन किया था। इन्हें बहुत-सी शिक्षा दी थी। अब ये मेरे प्राण बन चुके थे और मैं केवल इनका पुरोहित ही नहीं, पिता भी था। यह व्रजराय नन्द और वृषभानु की पूरी पीढ़ी मुझे पुत्रों के समान प्रिय थी। |
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