नहिं ऐसा जन्म बारम्बार।
क्या जानूँ, कछु पुण्य प्रगटे, मानुषा अवतार। (टेर)
बढ़त पल पल घटत छिन छिन, चलत न लागे बार।
बिरछ के ज्यों पात टूटे, लगे नहिं पुनि डार।।1।।
भवसागर अति जोर कहिये, विषम औखी धार।
सुरत का नर बाँध बेड़ा, बेग उतरो पार।।2।।
साधु सन्ता ते गहन्ता, चलत करत पुकार।
दासी मीराँ लाल गिरधर, जीवना दिन चार।।3।।[1]