ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 32-33
पंचदेवोपासकों के नरक में न जाने का कथन तथा छियासी प्रकार के नरक-कुण्डों का विशद परिचय सावित्री ने कहा- महाभाग धर्मराज! आप वेद एवं वेदांग पारगामी विद्वान हैं। जो सबका सारभूत, अभीष्ट, सर्वसम्मत, कर्म का उच्छेद करने में कारणभूत, परम श्रेष्ठ, मनुष्यों के लिए सुखदायी, यशोवर्द्धक, धर्मप्रद तथा सबको सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाला है, जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण मानव जगत को दुःख देने वाली यम यातना को नहीं प्राप्त होते, नरककुण्डों नहीं देखते और न उनमें पड़ते ही हैं; तथा जिससे जन्म आदि विकार नहीं प्राप्त होते, वह उत्तम कर्म क्या है? सुव्रत! यह बताने की कृपा करें। साथ ही उन कुण्डों के आकार कैसे हैं, वे किस प्रकार बने हैं तथा कौन-से पापी किस रूप से उनमें वास करते हैं- यह मैं सुनना चाहती हूँ। देह के अग्नि में भस्म हो जाने के पश्चात् मानव किस देह से लोकान्तरों में जाता और अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों के फल भोगता है? अत्यन्त क्लेश पाने पर भी वह शरीर नष्ट क्यों नहीं हो जाता तथा वह शरीर भी कैसा है? ये सभी बातें मुझे बताने की कृपा करें। भगवान नारायण कहते हैं- नारद! सावित्री के वचन सुनकर धर्मराज ने भगवान श्रीहरि को स्मरण करते हुए गुरु को नमस्कार कर पवित्र कथा आरम्भ की। धर्मराज बोले- वत्से! पतिव्रते! सुव्रते! चारों वेद, धर्मशास्त्र, संहिता, पुराण, इतिहास, पांचरात, प्रभृति धर्मग्रन्थ तथा अन्य धर्मशास्त्र एवं वेदांग- इन सबमें एक श्रीकृष्ण की मंगलमयी सेवा को ही सबके लिए अभीष्ट एवं सारभूत बतलाया गया है। इससे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। यह साधन सर्वमंगलरूप तथा परम आनन्द का कारण है। इससे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। यह नरक से प्राणी का उद्धार करने वाला है। भक्तिरूपी वृक्ष में अंकुर उत्पन्न करने वाला तथा कर्मरूपी वृक्ष को काटने वाला है। गोलोक के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए यह सोपान है। भगवान के सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य और सामीप्य आदि मोक्ष को तथा अविनाशी एवं शुभ पद को प्रदान करने वाला है। शुभे! श्रीकृष्ण के किंकर नरककुण्ड, यमदूत तथा यमराज को स्वप्न में भी नहीं देखते हैं। जो एकादशी का व्रत तथा वैष्णव तीर्थ में स्नान करते हैं। एकादशी को अन्न नहीं खाते और भगवान श्रीहरि को नित्य प्रणाम करते एवं उनकी प्रतिमा की पूजा करते हैं, उन्हें भी मेरी भयंकर संयमनीपुरी में जाना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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