भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ यह सन्देह हो सकता है कि पृथ्वी में नरदारक रूप से प्रकट हुए श्रीकृष्णचन्द्र में अलुप्तदृक्तादि कैसे हो सकते हैं? इसका उत्तर देते हैं- “ककुभः-कं सुखं तद्रूपतयैव कौ पृथिव्यामपि भातीति ककुभः।” अर्थात ‘क’ सुख को कहते हैं, भगवान ‘कृ’ अर्थात पृथ्वी में भी सुखरूप से भासमान हैं इसलिये ककुभ हैं। तात्पर्य है कि परमानन्दसिन्धु श्रीभगवान पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर भी परमानन्दरूप से ही अभिव्यक्त हैं। अर्थात जो अलुप्तदृक् विशुद्ध परमानन्दघन तत्त्व है वही पृथ्वी में श्रीनन्दनन्दनरूप से सुशोभित है; अतः इस रूप में भी उसका अनुप्तदृक्त्व अक्षुण्ण ही है। अथवा- “कं सुखं तद्रूपा कुः पृथ्वी भाति यस्मात् असौ ककुभः।” अर्थात क सुख को कहते है, अतः जिनके कारण कु-पृथ्वी भी सुखस्वरूपा जान पड़ती है वे भगवान ककुभ हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान के अलुप्तदृक्त्व और परमानन्द-सिन्धुत्व में तो सन्देह ही क्या है, उसकी सन्निधि से तो, ‘कु’ शब्दवाच्या पृथ्वी भी आनन्दरूपा होकर भास रही है। जिस समय रासलीला से भगवान अन्तर्हित हो गये उस समय श्रीकृष्ण-सौन्दर्यसमास्वादन से प्रमत्त हुई गोपांगनाएँ वृक्षादि से उनका पता पूछती हुई अन्त में पृथ्वी से कहती हैं-
अर्थात ‘अरी पृथ्वी! तूने ऐसा क्या तप किया है कि जिसके कारण तू श्रीकृष्णचन्द्र के स्पर्शजनित आह्लाद से हुए रोमांचों से सुशोभित है? अथवा श्रीउरुक्रम भगवान के पाद विक्षेपजनित चरणस्पर्श से या श्रीवराह भगवान के आलिंगन से तुझे यह रोमांच हुआ है?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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