भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
गोपांगनाओं के लिये तो यह प्रयोग आदरार्थ भी हो सकता है, क्योंकि उनके लिये तो एकमात्र भगवान ही आराध्यदेव, रक्षक, पति और गुरु हैं तथा गुरुजन आदि आदरणीय व्यक्तियों के लिये बहुवचन का प्रयोग किया जाता है। इसके सिवा इस प्रकरण में रासलीला के समय एक ही भगवान अनेकरूप होने वाले हैं। अतः भावी भेद के कारण भी कथन हो सकता है। यदि तुम पति शुश्रूषण की रीति न जानती हो, तुम्हें इस बात का पता न हो कि पतिदेव को किस प्रकार अपने अनुकूल बनाया जाता है तो ‘शुश्रूषध्वं सतीः’- पतिव्रताओं की सेवा करो। इससे तुम सेवा की विधि जान जाओगी। जैसे श्रीसीता जी को श्रीअनसूया जी और कौशल्या जी आदि ने उपदेश किया था उसी प्रकार, जीव अपने परमपति सर्वेश्वर भगवान को कैसे अपने अनुकूल करे यदि यह जानना हो तो, उसे वैसा आचरण जानने के लिये सत्पुरुषों की सेवा करनी चाहिये। जो लोग भगवान को प्रसन्न करना जानते हैं और जो शास्त्रानुमोदित मार्ग से चलते हैं वे ही इस मार्ग में सत्पुरुष हैं। उनकी कृपा से भगवान की प्राप्ति हो जाने पर फिर कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। भगवान के संकल्प से ही बन्ध-मोक्ष की प्रवृत्ति है। जब तक भगवान में अनुराग नहीं है तब तक तुम कैसे ही विद्वान या मेधावी हो यों ही भटकते रह जाओगे। सारा शास्त्रज्ञान भी भगवद्भक्ति विमुखों के लिये केवल भारमात्र रह जाता है।
यह बात भगवद्भक्ति-विमुख शास्त्रज्ञों के लिये है। इससे हम शास्त्र की अवहेलना नहीं करते। ऐसा शास्त्रज्ञ दूसरों का कल्याण तो कर सकता है, किन्तु स्वयं कोरा ही रह जाता है; जैसे दीपक औरों को तो प्रकाशित करता है, किन्तु उसके नीचे अँधेरा ही रहता है। इस विषय में विद्वानों की भी ऐसी ही सम्मति है कि विद्वान रागी होने पर भी दूसरों का कल्याण कर सकता है, किन्तु शास्त्रानभिज्ञ परुष विरक्त होने पर भी दूसरों का कल्याण कर सकता है, किन्तु शास्त्रानभिज्ञ पुरुष विरक्त रहने पर भी दूसरों को पथ प्रदर्शन नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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