भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
ऊपरी दृष्टि से देखा जाय तो अद्वैतवादी और नास्तिकों में कोई भेद दिखाई नहीं देगा। मुक्तावस्था में दृश्य की व्यर्थता तो नैयायिकों के मत में भी हो जाती है। यह ठीक है कि वे उसका मिथ्यात्व स्वीकार नहीं करते; तथापि मुक्त पुरुष को तो उसका विशेष ज्ञान निवृत्त हो जाने के कारण प्रपंच का भान नहीं होता। यही बात सांख्य मत के विषय में कही जा सकती है। वस्तुतः संसार से सम्बन्ध छूट जाने पर और प्रभु से सम्बन्ध जुड़ जाने पर लोक-वेद की विधि छूट ही जाती है। सब आचार्यों का ऐसा ही मत है।
और यही नास्तिकों का भी लक्षण है। देखा जाय तो तत्त्वज्ञ और व्रात्य इन दोनों का बाह्य रूप एक ही होता है। देखिये जिस प्रकार यवनादि शिखा-सूत्रादि से रहित होते हैं उसी प्रकार एक परमहंस भी होता है। यही नहीं, भगवान शंकर को भी ‘व्रात्य’ कहा है- ‘व्रात्यानां पतये नमः’। इस प्रकार देखा जाय तो एक तत्त्वज्ञ का स्वरूप तो अवश्य व्रात्य के समान ही होता है; तथापि उनमें वस्तुतः बहुत अन्तर होता है। उनमें से एक तो साधन कोटि को पार कर गया है और दूसरे ने उसमें प्रवेश भी नहीं किया। इस समय अवश्य दोनों ही साधन के संसर्ग से रहित हैं। इस प्रकार यज्ञ-यागादि का अनुष्ठान न करने पर भी अद्वैतनिष्ठ महात्मा को अवैदिक नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वेद का प्रामाण्य मानने वाला तो वही है। वैदिक तो उसी को कहना चाहिये जो वेदार्थ को अबाधित रखे। वेद कहते हैं- ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म’, ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ इत्यादि। अतः जो ब्रह्म को सजातीय, विजातीय एवं स्वगत भेद से रहित मानते हैं वे तो ब्रह्म से भिन्न वेद की भी सत्ता नहीं मानते। वेद की पृथक् सत्ता मानने पर तो वेद को सजातीयादि भेद से रहित सिद्ध नहीं किया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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