भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसीलिये उपनिषद् पढ़ने वाले भगवान से प्रार्थना करते हैं- ‘माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमऽस्तु’ प्रभु दीर्घकाल से हमारा निराकरण करते आये हैं और हम प्रभु का निराकरण करते आये हैं। इसी से हमें कीटपतंगादि योनियों में भ्रमना पड़ा है। यह अनिराकरण तो प्रभु की कृपा से ही होगा। वे ही हमें ऐसी बुद्धि प्रदान कर सकते हैं क्योंकि यह चरण असत्पुरुषों को अत्यन्त दुष्प्राप हैं। जिस समय पुरुषों का संसरण समाप्त होने को होता है, हे नाथ! तभी आपके श्रीचरणों में प्राणियों को रति होती है। वस्तुतः मायामोहित जीव बरबस प्रभु को भूलकर प्रपंच में फँसा हुआ है और प्रभु की उपेक्षा करता है। अत: ऋषि यही प्रार्थना करता है- हे दयामय! आप ही कृपा करें कि मैं आपका अनादर या उपेक्षा न करूँ। हे दयामय! माया मोहित होकर ही हमने आपका अनादर किया है। अपने अन्तरात्मा प्रियतम सर्वस्व का अपमान मोह से ही हमने किया है, अतः आप मेरी उपेक्षा न करें। इस प्रार्थना के साथ-साथ आप ही से यह भी प्रार्थना है कि मैं आपका अनादर न करूँ। अक्रूर जी महाराज कहते हैं-
हे नाथ, आज मैं आपके चरणों की शरण आया हूँ, यह भी आपके अनुग्रह का फल है। जब तक प्रभु कृपा न करें, जब तक वे हाथ न लागावें तब तक हमारी नैया किनारे नहीं लग सकती। श्रीगोसाईं जी महाराज का कथन है- “ज्ञान भक्ति साधन अनेक सब सत्य झूठ कछु नाहीं।।” अर्थात ये सारे साधन हैं तथापि जब तक आपका करावलम्ब न हो तब तक मेरे किये तो कुछ होना नहीं है। अतः भाई! ऐसी बुद्धि तो प्रभु कृपासाध्य है। हमें तो केवल प्रभृ कृपा की प्रतीक्षा करते रहना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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