भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
गोपांगनाओं का प्रेम अत्यन्त प्रौढ़ था; किन्तु वे उसे छिपाये रहती थीं। उनका सिद्धान्त था- “गुप्त प्रेम सखि सदा दुरैये। प्रेमी लोग प्रेम को सदा दुराते ही हैं। वह हठात् प्रकट हो जाय तो वश की बात नहीं। अहा! श्रीवृषभानुनन्दिनी ने तो अपने प्रेम को अन्तरतम सखियों से भी छिपाकर रखा था। वह उन्हें उनकी अचेतावस्था में ही प्रकट होता था। अब, जब भगवान ने देखा कि इनकी पूर्ण योग्यता है। ये मेरा रसास्वादन करने की पात्र हैं तो उन श्यामघन ने वेणु-निनाद से अमृत वर्षण कर उनके हृत्समुद्र में इतना रस भर दिया कि वह उसमें समा न सका। अहा! जिनके चरण नख से निकली हुई श्रीगंगा जी वडवाग्नि द्वारा सोखे हुए समुद्र को भरने में समर्थ हैं, उन्हीं श्यामघन ने जब वेणुनाद द्वारा प्रेममय अधर-सुधारस वर्षण किया तो उसका प्रवाह इतना बढ़ा कि उसमें व्रजांगनाएँ बह गयीं। यदि प्रबल प्रबाह में पड़ी हुई नौका की कोई नाविक रोकना चाहे तो वह रोक नहीं सकता। इसी प्रकार गोपांगनाओं को भी कोई रोक न सका। इसी से भगवान कहते हैं- ‘गोपिकाओ! अब मैं समझाा। तुम तो मेरे प्रेम से विवश होकर ही यहाँ आयी हो।’ ‘यन्त्रिताशयाः-वशीकृतान्तःकरणाः’ अर्थात जिनका अन्तःकरण किसी ने अपने अधीन कर लिया हो। भगवान के मधुमय वेणुनिनादरूप चोर ने गोपांगनाओं के हृदय-भवन में घुसकर उनके विवेकरूप धन को चुरा लिया था। इसीलिये उन्हें लौकिक-वैदिक मर्यादा का ज्ञान नहीं रहा। भगवान कहते हैं- आप लोगों ने यद्यपि बड़ा प्रयत्न भी किया कि लोकमर्यादा का विच्छेद न हो; परन्तु यह तो आपके वश की बात नहीं रही थी। देखो, भ्रमर बहुत से बन्धनों को काट सकता है, कठोर काष्ठ में भी छिद्र कर देता है, परन्तु पंकज-कोश को नहीं काट सकता। इसी प्रकार आप भी प्रेमबन्धन को काटने में सर्वथा असमर्थ थीं। किन्तु प्रियतम! जब आप जानते हैं कि ये व्रजांगनाएँ प्रेमपाश में बँधकर ही आपके पास आयी हैं तो आप इन पर कृपा क्यों नहीं करते? इस पर भगवान कहते हैं- ‘मदभिस्नेहाद्भवत्यो यन्त्रिताशयाः’ आप मेरे अभिस्नेह से विवशचित्त हैं। ‘अभितः अभिस्नेहः प्रीतिविशेषः’ अर्थात हे गोपांगनाओं! हम जानते हैं, आप लोग सहज स्नेह से आयी हैं- किसी स्त्री-पुरुष सम्बन्धिनी रति के कारण नहीं आयीं। आपका प्रेम विशुद्ध है; उसमें काम का लेश नहीं है। मेरे में तो केवल प्रेम है, कृति तो है नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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