भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यद्यपि मण्यादि की कार्य प्रतिकूलता का निश्चय अन्वय-व्यतिरेक से हो सकता है, तथापि विसामग्रीरूपता लक्षणप्रतिबन्धत्व तदीय अभाव की सामग्री के अन्तर्भाव विज्ञान के सापेक्ष है, क्योंकि विसामग्री प्रतिबन्ध है, यह मान्य है। अतः प्रतिबन्धत्व और सामग्रीत्व का ज्ञान परस्पर सापेक्ष होने से अन्योन्याश्रयता दुर्निवार होगी, अर्थात वैसामग्रय ही प्रतिबन्ध है और प्रतिबन्धाभाव रूप, कारण, वैकल्य ही वैसामग्रय है। ऐसी स्थिति में मणि आदि के वैसामग्रयरूप प्रतिबन्धतत्त्व का ज्ञान मन्त्रादि सम्बन्धी अभाव के अन्तर्भाव ज्ञान सापेक्ष है और मन्त्रादि के अभाव का सामग्रयन्तर्भाव ज्ञान, मणि आदि के प्रतिबन्धत्व ज्ञान के अधीन है, क्योंकि प्रतिबन्धाभाव रूप, कारण वैकल्प से वैसामग्रय का उपपादन होगा, अत एव अन्योन्याश्रयता सुतरां सिद्ध है। यदि कहा जाय कि मण्यादि के विसामग्रीत्व का ज्ञान भले ही मण्याद्यभाव सम्बन्धी सामग्री के अन्तर्भाव ज्ञान के सापेक्ष रहे, पर वह्निस्वरूप की तरह अन्वय-व्यतिरेक से ही मण्यादि के अभाव की सामग्रयन्तर्भाव सम्बन्धी अवगति हो सकती है, अतः अन्योन्याश्रयता न होगी, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि वहाँ यह शंका होगी कि क्या प्रत्येक मण्याद्यभाव अन्वय-व्यतिरेक द्वारा कारणरूप से निश्चित किये जाते हैं या प्रतिबन्धाभावरूप उपाधि से क्रीड़ीकृत होकर? पहली बात हो नहीं सकती, क्योंकि मण्याद्यभाव अनन्त है, उनके उपसंग्राहक के बिना प्रत्येक अन्वय-व्यतिरेक का निश्चय सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता। दूसरा पक्ष मानें, तो विसामग्रीरूप प्रतिबन्ध ज्ञान के अधीन प्रतिबन्धाभावत्वरूप उपाधि का ज्ञान हुए बिना मण्याद्यभाव सम्बन्धी सामग्रयन्तर्भाव का ज्ञान होना कठिन है, अतः अन्योन्याश्रयता का निराकारण फिर भी बना ही रहेगा, इसलिये द्वितीय पक्ष भी अस्वीकार्य है। शक्ति पक्ष में प्रतिबन्ध की जो असम्भवता पीछे कही गयी, वह भी ठीक नहीं है, अन्यथा शक्ति को न मानने वालों को भी कारणों के कार्यौदासीन्य को ही प्रतिबन्ध मान लेना पड़ेगा, क्योंकि वैसामग्रयरूप प्रतिबन्ध का तो उपर्युक्त अन्योन्याश्रय दोषरूप रीति से खण्डन किया ही जा चुका हैं अतः प्रतिबन्धाभाव के कारण न बनने से कार्यार्थापत्ति की, बिना शक्ति को स्वीकृत किये, अन्यथा उपपत्ति हो ही नहीं सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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