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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
धृतराष्ट्र आदि का संन्यास ग्रहण
श्रीकृष्ण के द्वारका जाने के कुछ दिनों बाद एक दिन महात्मा विदुर युधिष्ठिर के पास आये। उन्होंने कहा- “धर्मराज तुम्हारे पूज्य चाचा और चाची अब संन्यास लेना चाहते हैं। मैं भी अब अपना जीवन सुधारने के लिए तप करना चाहता हूँ। तुम हमारे राजा हो मैं तुम से तीनों की ओर से आज्ञा मांगने आया हूँ।” धर्मराज ने हाथ जोड़कर कहा- “चाचा जी अपने मोहवश तो मै यह आज्ञा नहीं देना चाहता पर धर्म को समझते हुए मैं आप लोगों को वन जाने से रोक भी नहीं सकता। मैं पण्डितों से शुभ मुहूर्त सुझवा कर आप लोगों के वन जाने की व्यवस्था करूंगा।” जब कुन्ती मां ने यह समाचार सुना तो वह भी युधिष्ठिर के पास आयी और अपनी वन जाने की इच्छा प्रकट की। युधिष्ठिर ने उन्हें बहुत तरह से समझा-बुझा कर रोकना चाहा पर उन्होंने कहा- “मैं अब अपना अन्त समय ईश्वर के ध्यान में लगाना चाहती हूँ।” इस तरह मां, चाची तथा विदुर काका को वनवास के लिए विदा देने का दिन आ पहुँचा। सारा शहर बूढ़े महाराज और महारानियों तथा लोकप्रिय महामंत्री जी को विदा देने के लिए उमड़ पड़ा। रनिवास की सभी छोटी-बड़ी रानियों, बांदियों तक की आंखों से आंसुओं की अविरल धार बह रही थी। नौकर-चाकर उदास थे। प्रजा के लोग विलाप कर रहे थे। बहुत से भावुक लोग तो सीमा के बाद भी इन बूढ़े राज-पुरुषों के पीछे-पीछे तपोवन तक चले गये। बाकी लोग उदास मन से नगर में लौट आये। दुनिया का कारोबार फिर से चलने लगा। हस्तिनापुर में बहुत कुछ नया बनने लगा और पुराना गायब होने लगा। धीरे-धीरे माघ का महीना आया। सूर्य के उत्तरायण होने के दिन आये। सब लोग जानते थे कि तपस्वी भीष्म पितामह अब अवश्य ही अपनी देह त्याग करेंगे इसलिए दर्शनार्थी उनके आ-पास जमा होने लगे। सूर्य उत्तरायण हुए और महर्षि, तपस्वी, वीर-व्रतधारी भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्याग किये। एक युग का मानो अन्त हो गया। बड़े राजकीय समारोह के साथ उनका दाह-संस्कार हुआ। केवल घर के लोगों ने ही नहीं बल्कि हजारों प्रजाजनों ने भी नदी में खड़े होकर पितामह को तर्पण दिया। मंत्र पढ़कर हजारों लाखों लोग तब से लेकर आज तक भीष्म पितामह को तर्पण दिया करते हैं। जिस वीरव्रती के कोई बेटा न था उसके करोड़ों बेटे तब से लेकर आज तक उसे श्रद्धा से तर्पण करते हैं। आत्मदानी महाव्रतियों का यश पृथ्वी पर सदा अमर रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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