यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 186

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।3।।


वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिये वर्णन किया है; क्योंकि तू मेरा भक्त और सखा है और यह योग उत्तम रहस्यपूर्ण है। अर्जुन क्षत्रिय श्रेणी का साधक था, राजर्षि की अवस्था वाला था, जहाँ ऋद्धियों-सिद्धियों के थपेड़े में साधक नष्ट हो जाता है। इस काल में भी योग कल्याण की मुद्रा में ही, किन्तु प्रायः साधक यहाँ पहुँचकर लड़खड़ा जाते हैं। ऐसा अविनाशी किन्तु रहस्मय योग श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, क्योंकि नष्ट होने की अवस्था में अर्जुन था ही। क्यों कहा इसलिये कि तू मेरा भक्त है, अनन्य भाव से मेरे आश्रित है, प्रिय है, सखा है।


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः