यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 187

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


जिस परमात्मा की हमें चाह है, वह (सद्गुरु) परमात्मा आत्मा से अभिन्न जब निर्देशन देने लगे, तभी वास्तविक भजन आरम्भ होता है। यहाँ प्रेरक की अवस्था में परमात्मा और सद्गुरु एक दूसरे के पर्याय हैं। जिस सतह पर हम खड़े हैं उसी स्तर पर जब स्वयं प्रभु हृदय में उतर आयें, रोकथाम करने लगें, डगमगाने पर सँभालें, तभी मन वश में हो पाता है- ‘तुलसीदास (मन) बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।’ (विनयपत्रिका, 89) जब तक इष्टदेव रथी होकर, आत्मा से अभिन्न होकर प्रेरक के रूप में खड़े नहीं हो जाते, तब तक सही मात्रा में प्रवेश ही नहीं होता। वह साधक प्रत्याशी अवश्य है, लेकिन भजन उसके पास कहाँ?

पूज्य गुरुदेव भगवान कहा करते थे-“हो! हम कई बार नष्ट होते-होते बच गये। भगवान ने ही बचा लिया। भगवान ने ऐसे समझाया, यह कहा।” हमने पूछा-“महाराज जी! क्या भगवान भी बोलते हैं, बातचीत करते हैं? वे बोले-“हाँ हो! भगवान ऐसे बतियावत हैं जैसे हम-तुम बतियाईं, घण्टों बतियाई और क्रम न टूटे।” हमें उदासी हुई और आश्चर्य भी कि भगवान कैसे बोलते होंगे, यह तो बड़ी नहीं बात है।

कुछ देर बाद महाराज जी बोले-“काहे घबड़ात है! तो हूँ से बतियैहैं।” अद्वरशः सत्य था उनका कथन और यही सख्यभ्ज्ञाव है। सखा की तरह वे निराकरण करते रहें, तभी इस नष्ट होनेवाली स्थिति से साधक पार हो जाता है। अभी तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने किसी महापुरुष द्वारा योग का आरम्भ, उसमें आनेवाले व्यवधान और उनसे पार पाने का रास्ता बताया। इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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