श्रीनारायणीयम्
एकोनपञ्चाशत्तमदशकम्
वृन्दावन-गमन भगवन्! आपके प्रभाव से अनभिज्ञ गोपगण यहाँ व्रज में अकारण ही तरु-प्रपात आदि बहुत से उपद्रवों को देखकर शंकित हो उठे। तब वे कहीं अन्यत्र जाने के लिए विचार-विमर्श करने लगे।।1।।
उन गोपों में उपनन्द नामक एक श्रेष्ठ गोप थे। उन्होंने अवश्यमेव आपकी ही प्रेरणा से बतलाया कि ‘यहाँ से पश्चिम दिशा में वृन्दावन नाम का एक परम मनोहर वन सुशोभित है (वहीं चलना चाहिए)’।।2।।
तदनन्तर उसी क्षण नन्द आदि गोप उस बृहद्वन को पुराना गोकुल बनाकर वहाँ से वृन्दावन के लिए चल पड़े। उस समय आपको लिए हुए आपकी माता यशोदा जिसमें बैठी थीं, उस भारी एवं विशाल छकड़े के पीछे-पीछे वे गोप चल रहे थे।।3।। |
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