विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी! मेरे) नेत्र अब पश्चाताप करने लगे हैं। (श्यामसुन्दर से) वियोग होते ही (इनमें) उमड़कर जल भर आया और अब (इन्हें) कुछ भी चेत (होश) नहीं है। तब (जब श्यामसुन्दर यहाँ थे) बार-बार मिलकर कैसे (ये) प्रेम बढ़ाते थे, अब वही (प्रेम इनके लिये विष से) बुझा बाण हो गया। इन अज्ञानियों ने तब तो (अत्यन्त) आतुर (अधीर) होकर प्रेम किया और (परिणाम) कुछ समझा नहीं। अब यह काम (प्रेम) रात-दिन जला रहा है, (जिसे) रोकना मेरे वश की बात नहीं। हमारे लिये (तो अब) मथुरा (ही) विदेश हो गयी, (जहाँ) किसी प्रकार जाना नहीं हो पाता। पहिले तो इन नेत्रों को उन्हें देखने की अत्यन्त उत्सुकता रहा करती थी और अब (उनके बिना) व्याकुल होने लगे हैं। स्वामी! ये दीन (नेत्र) अत्यन्त दुःखी हैं, (आप इन्हें हमारे) प्राणों के साथ ले क्यों नहीं गये ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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