विरह-पदावली -सूरदास
(108) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी! सुन,) मोहन जिस दिन वन में नहीं जाते थे, उस दिन उन्हें देखे बिना (वन के) पशु-पक्षी तथा वृक्ष-लताएँ भी व्याकुल हो जाती थीं। वे उन सौन्दर्य निधान को भर नेत्र देखते थे, फिर भी देखकर कभी तृप्त नहीं होते थे। (अब वे ही वन के) हिरन पेट भर घास नहीं चरते, अतः (उनके) शरीर दुर्बल बने रहते हैं। जो (पक्षी पहले) कान भरकर वंशीध्वनि सुना करते थे, (अब वे) मुख से फल नहीं खाते और तोते एवं कोकिल आदि पक्षी अब धैर्यहीन होकर वन में क्रन्दन करते घूमते हैं। (श्यामसुन्दर के) पल्लव-समान हाथों से छूने पर जिन लताओं से अत्यन्त अनुराग के कारण रस टपकता था, वे ही वृक्षों से सूखकर जीर्ण हुई गिरी जा रही हैं; (क्योंकि वे) सब अत्यन्त अधीर और वियोग से शिथिल हैं। (उनकी यह दशा) सुन्दर (मुझे अपने) शरीर की दशा भूल जाती है। मदनमोहन के बिना हमारा एक-एक क्षण युग के समान बीतता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |