भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 235

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीरामः

श्री बल्लभाचार्य जी कहते हैं- जो सारस्वत कल्प के पूर्णतम पुरुषोत्तम कृष्ण हैं, वही श्रीराम हैं। पुराणों में, महाभारत में और रामायणों में भी वाल्मीकि -रामायण की चर्चा है। बाल्मीकि-रामायण में ब्रह्मा जी कहते हैं-

भगवान् नारायणो देवः श्रीमांश्चक्रायुद्धः प्रभुः।
एकश्रृगों वराहस्त्वं भूतभव्यसपलजित्।।
अक्षरं ब्रह्म सत्यं च मध्ये चान्ते च राधव।
लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः।।
शांगधन्वा हृषीकेशः पुरुषः पुरुषोत्तमः।
अजितः शंख-घृग् विष्णुः कृष्णश्चैव बृहद्वलः।।[1]

(आप भोक्ता और भोग्य रूप सकल प्रपंच के आश्रय साक्षात नारायण हैं, सुदर्शन चक्रधारी श्री विष्णु हैं, एक श्रृंग बराह तथा भूत और भव्य सकल शत्रुओं के विजेता है। आप ही आदि, अन्त और मध्य में रहने वाले सत्य अक्षर हैं। सब लोकों के आप ही परम धर्म है। आप ही चतुर्भुज विष्वक्सेन, शागधन्वा, सर्वेन्द्रिय नियामक हृषीकेश पुरुष एवं पुरुषोत्तम हैं। आप हो अजित खड्गधर विष्णु, बृहद्वल कृष्ण हैं।)

सेनानीर्ग्रामणीः सर्व त्वं बुद्धिस्त्वं क्षमा दमः।
प्रभवश्चाप्यश्च त्वमुपेन्द्रो मधुसूदनः।।
इन्द्रकर्मा महेन्द्रस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत्।
शरण्यं शरणं च त्वामाहुदिव्या महर्षयः।।
सहस्रश्रृगो वेदात्मा शतशीषीं महर्षभः।
त्वं त्रयाणां हि लोकानामादिकर्ता स्वयं प्रभुः।।[2]

(आप सेनानी एवं ग्रामीण हैं। आप ही बुद्धि, सत्त्व, क्षमा तथा दम हैं। जगत की उत्पत्ति और प्रलय के आप ही एकमात्र कारण हैं एवं आप ही मधुसूदन हैं। आप ही इन्द्र कर्मा इन्द्र की सृष्टि करने वाले महेन्द्र हैं। रणान्तकृत पद्मनाभ भी आप ही हैं। दिव्य महर्षि आपको शरण योग्य परम आश्रय एवं रक्षक कहते हैं। आप ही सहस्रश्रृंग वेद एवं शतशीर्ष महान् धर्म हैं। आप तीनों लोकों के आदि कर्ता स्वयं प्रभु हैं- आपका अन्य कोई प्रभु नहीं है।)
भागवत वाले कहते हैं--

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं सृडयन्ति युगे-युगे।।[3]

(ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं तब युग-युग अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं।)
‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयं’ के साथ ‘स्वयं प्रभुः’ इस वचन की वाक्यता है कि एक वाक्यता है कि नहीं? इस तरह आदि काव्य वाल्मीकि-रामायण के भगवान श्रीराम और भागवत के श्रीकृष्ण एक ही तत्त्व सिद्ध होते हैं। इसी दृष्टि से ‘श्रीकृष्ण सोलह कला हैं और श्रीराम बारह कला’ इसका भी समन्वय कर लेना चाहिये। सोलह आने का एक रुपया होता है। सोलह आना और बारह मासा का एक ही अर्थ है। श्रीकृष्णचन्द्र चन्द्रवंशी हैं तो श्रीरामचन्द्र सूर्यवंशी। चन्द्रमा को सोलह कलाएँ होती हैं तो सूर्य की बारह राशि होती हैं। जैसे चन्द्र सोलह कला में पूर्ण हैं, वैसे ही सूर्य बारह राक्षियों में पूर्ण हैं। इस तरह से श्रीरामचन्द्र परात्पर पूर्णतम पुरुषोत्तम स्वयं भगवान ही हैं-

ऋतधर्मा वसुः पूर्व वसूनां च प्रजापतिः।
त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयं प्रभुः।।[4]

पूर्वकाल में वसुओं के प्रजापति जो ऋतुधर्मा नाम के वसु थे, वे आप ही हैं। आप तीनों लोके के आदिकर्ता स्वयं प्रभु हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाल्मीकि रामायण 6.177.13-15
  2. वाल्मीकि रामायण 6.117.16-18
  3. भागवत 1.3.28
  4. वाल्मीकि रामायण 6.117.7

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
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14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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