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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
11. ‘नटवर- वपुः’:-
‘नटवत् वरवच्च वपुर्यस्य’ नट होता है विप्रलम्भ श्रृंगार का प्रतिनिधित्व करने वाला, वर होता है संभोग श्रृंगार का प्रतिनिधित्व करने वाला। वर कहते हैं दूल्हा को। दूल्हासम्भोग श्रृंगार का प्रतिनिधित्व करता है। नट श्रासौ वरचश्व नटवरः, तस्य वपुरिव वपुर्यस्य सः। नट विप्रलम्भ श्रृंगार का प्रतिनिधित्व करता है। शीतल मन्द सुगन्ध पवन नहीं है, परन्तु नट अपने अभिनय से अविद्यमान शीतल मन्द सुगन्ध पवन का अनुभव करता है। चन्द्रोदय नहीं है, लेकिन वह अभिनय से अविद्यमान चन्द्रोदय का अनुभव कराता है। इसलिए विप्रलम्भ श्रृंगार का प्रतिनिधित्व करता है नट; संयोग श्रृंगार का प्रतिनिधत्व करता है वर। दोनों के तुल्य जिसका स्वरूप है, वह नटवर है। दूल्हा के समान भगवान का मंगलय स्वरूप और नट के तुल्य भगवान का मंगलमय स्वरूप। अर्थात संभोग श्रृंगार सारसर्वस्व और विप्रलम्भश्रृंगारसारसर्वस्व श्रीकृष्ण चन्द्र परमानन्दकन्द का स्वरूप है, भौतिक नहीं है। हमारा आपका जैसा हाड़-मांस-चाम का पुतला, ऐसा भगवान का स्वरूप (श्री विग्रह) नहीं है। वह तो सच्चिदानन्द रस सारसरोवर समुद्भुत सरोज है। सच्चिदानन्दससारसरोवर में आविर्भूत सरोज। पानी के सरोवर में मिट्टी का पंक से कोई पंकज पैदा होता हो तो उसकी सुन्दरता, मधुरता, कोई पंकज हो तो उसकी शोभा-आभा-प्रभा कितनी अद्भुत होगी? अगर सच्चिदानन्दरससार-सरोवर में सच्चिदानन्दरस-सार- सर्वस्व रूप पंक से कोई पंकज पैदा (प्रादुर्भूत) होता हो तो उस पंकज की शोभा, आभा, कैसी अद्भुत होगी?
आनन्दवृन्दावनचम्पूकार बोलते हैं-
अनाघ्रातं भृगैरनपहृतसौगन्ध्यमनिलै-
रनुत्पन्नं नीरेष्वनुपहतमूर्मीकरणभरैः।
अदृष्टं केनापि क्वचन च चिदानन्दसरसो
यशोदायाः क्रोडे कुवलयमिव तदोजः समभवत्।।[1]
(मूर्तिमान सच्चिदानन्दमय ज्योति स्वरूप श्रीकृष्ण माँ यशोदा की गोद में इस प्रकार शोभा पाने लगे- मानो चिदानन्द सरोवर से एक ऐसे नीलकमल का विकास हुआ हो जिसकी सुगन्धि आज तक भ्रमरों के द्वारा भी न सूँघी गई हो, जिसकी सुगन्धि पवनसमुदाय के द्वारा भी अपहृत न की गई हो, जो जल से भी उत्पन्न न हुआ हो, तरंग कणों की अधिकता कभी स्पर्श तक न कर पाई हो, जिसे अब तक किसी ने देखा भी न हो। अतः ये श्याम सुन्दर क्या है? अनाघ्रात, अनपहृत, अनुत्पन्न, अनुपहत, अवृष्ट सब तरह से ही दिव्यातिदिव्य नीलकमल के सदृश हैं।)
अहह! यह ऐसा अनूठा कमल है कि अभी तक इसके सौगन्ध का आघ्राण महामुनीन्द्र भक्तों के मनोमिलिन्द तक ने नहीं किया। भक्तों के मनोमिलिन्दों ने भक्तों के मन रूपी भौरों ने, अभी इस अनूठे, अद्भुत, अपूर्व, पंकज का सौगन्ध्य आघ्राण ही नहीं किया।
यहाँ शंका होती है- भला ऐसा कैसे हो सकता है?
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