महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
32.यवक्रीत की तपस्या
महर्षि लोमश के साथ तीर्थाटन करते हुए पांडव गंगा किनारे रैभ्य मुनि के आश्रम में पहुँचे। लोमश ऋषि ने पांडवों को उस स्थान की महिमा बताते हुए कहा- "युधिष्ठिर! यही वह घाट है यहाँ दशरथ पुत्र भरत ने स्नान किया था। वृत्रासुर को धोखे से मारने के कारण इन्द्र को ब्रह्म-हत्या का जो पाप लगा था, यहीं उसका प्रक्षालन हुआ था। सनत्कुमार को यहीं सिद्धि प्राप्त हुई थी। सामने जो पहाड़ दिखाई दे रहा है, उसी पर देवमाता अदिति ने संतान की कामना से तपस्या की थी। युधिष्ठिर! इस पवित्र पर्वत पर चढ़कर अपने यशो पथ के विघ्नों को दूर कर लो! इस गंगा के सतत-प्रवाही जल से स्नान करने से अन्दर का अहंकार तुरंत धुल जाता है।" इस प्रकार ऋषि उस स्थान की पवित्रता की महिमा पांडवों को विस्तार से बताने लगे। फिर वह बोले– "और सुनो! ऋषिकुमार यवक्रीत का यहीं पर नाश हुआ था।" इस भूमिका के साथ यवक्रीत की कथा कहना शुरू किया- भरद्वाज और रैभ्य दो तपस्वी जंगल में पास-पास आश्रम बनाकर रहते थे। दोनों में गहरी मित्रता थी। रैभ्य के दो लड़के थे- परावसु और अर्वावसु। पिता और पुत्र सब वेद-वेदांगों के पहुँचे हुए विद्वान माने जाते थे। उनकी विद्वत्ता का सुयश खूब फैला हुआ था। भरद्वाज तपस्या में ही समय बिताते थे। उनके एक पुत्र था, जिसका नाम था यवक्रीत। यवक्रीत ने देखा कि ब्राह्मण लोग रैभ्य का जितना आदर करते है, उतना मेरे पिता का नहीं करते। रैभ्य और उनके लड़कों की विद्वत्ता के कारण लोगों में उनकी बड़ी इज्जत होती देखकर यवक्रीत के मन में जलन पैदा हो गई। ईर्ष्या के कारण उसका शरीर जलने लगा। अपनी अविद्या को दूर करने की इच्छा से यवक्रीत ने देवराज इन्द्र की तपस्या शूरू की। आग में अपने शरीर को तपाते हुए यवक्रीत ने अपने-आपको और देवराज को बड़ी यातना पहुँचाई। आखिर यवक्रीत ने अपने-आपको और देवराज को दया आई। उन्होंने प्रकट होकर यवक्रीत से पूछा- "किस कारण यह कठोर तप कर रहे हो?" यवक्रीत ने कहा- "देवराज, मुझे संपूर्ण वेदों का ज्ञान अनायास ही हो जाये और वह भी ऐसे कि जितना अब तक किसी ने अध्ययन न किया हो! गुरु के यहाँ सीख तो सकता हूं; पर कठिनाई इस बात की है कि एक-एक छन्द को रटना पड़ता है और कई दिनों तक कष्ट उठाना पड़ता है। चाहता हूँ कि बिना आचार्य के मुख से सीखे ही मैं भारी विद्वान बन जाऊं। मुझे अनुगृहीत कीजिए।" यह सुन इन्द्र हंस पड़े। बोले– "ब्राह्मण कुमार! तुम उल्टे रास्ते चल पड़े हो। अच्छा यही है कि किसी योग्य आचार्य के यहाँ उसके शिष्य बनकर रहो और अपने परिश्रम से वेदों का अध्ययन करो और विद्वान बनो।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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