- धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च वाच्यम्।[1]
धर्म, अर्थ और यश की प्राप्ति हो ऐसा वचन बोलना चाहिये।
- दुष्टानां चैव बोद्धव्यमदुष्टानां च भाषितम्।[2]
दूषित और निर्दोष हृदय वाले दोनों के वचनों को समझना चाहिये।
- न त्वशुश्रुषमाणे वै वाक्यं सम्प्रतिष्ठति।[3]
जो सुनना नहीं चाहता उसके अंदर वाक्य (गया तो भी) नहीं ठहरता।
- अप्रियस्य हि पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।[4]
अप्रिय परंतु हितकारी वचनों को बोलने और सुनने वाले दुर्लभ हैं।
- ग्राह्यं यदि वचो मह्यं हितम्।[5]
यदि मेरा वचन हितकर लगे तो अवश्य मानना।
- विदितेचापि वक्तव्यं सुहृद्भिरनुरागत:।[6]
ऋजु को विदित होने पर भी हितैषी जन स्नेहवष उसे हित की बातें बतायें
- किमुक्तेन व्यतीतेन।[7]
बीती बातें बोलने से क्या लाभ?
- यथार्थमिह वक्तव्यं सर्वथा धर्ममिप्सया।[8]
धर्म की प्राप्ति के लिये संसार में यथार्थ ही बोलना चाहिये।
- यादृश: पुरुषस्यात्मा तादृशं सम्प्रभाषते।[9]
मनुष्य जैसा होता है वैसी ही बातें करता है।
- अपृष्टस्तस्य तद् ब्रुयाद् यस्य नेच्छेत् पराभवम्।[10]
जिसकी पराजय नहीं चाहता हो उसे बिना पूछे भी अज्ञात बातें बताये।
- अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम्।[11]
विशेष अर्थ वाली और चमत्कारपूर्ण वाणी अधिक नहीं बोली जा सकती
- द्वयोर्विवदतोस्तथ्यं वाच्यम्।[12]
दो के विवाद में तथ्य बोलना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 203.1
- ↑ आदिपर्व महाभारत 203.25
- ↑ आदिपर्व महाभारत 204.1
- ↑ सभापर्व महाभारत 64.16
- ↑ वनपर्व महाभारत 146.96
- ↑ विराटपर्व महाभारत 4.9
- ↑ विराटपर्व महाभारत 21.19
- ↑ विराटपर्व महाभारत 28.13
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 3.1
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.4
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.76
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 35.29
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