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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
82. गीता में भगवान् की विषय प्रतिपादन शैली
(क)गीता में भगवान् की यह शैली देखने में आती है कि वे भिन्न-भिन्न साधनों से परमात्मा की ओर चलने वाले साधकों के लक्षणों के अनुसार ही परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुषों के लक्षणों का वर्णन करते हैं; क्योंकि जो साधन जहाँ से आरंभ होता है, अंत में वहीं उसकी समाप्ति होती है। जैसे- 1. दूसरे अध्याय के सैतालीसवें श्लोक में भगवान् ने कर्मयोग के साधकों के लिए चार बातें (चार चरणों में) बतायी हैं-
तीसरे अध्याय के अठारहवें श्लोक में ठीक उपर्युक्त साधना की सिद्धि की बात (कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष के लक्षणों में) कही गयी है। यहाँ दूसरे और तीसरे चरण में साधक के लिए जो बात कही गयी है, वह तीसरे अध्याय के अठारहवें श्लोक के उत्तरार्ध में सिद्ध महापुरुष के लिए कही गयी है कि उसका किसी भी प्राणी और पदार्थ से किञ्चिन्मात्र भी कोई संबंध नहीं रहता- ‘न चास्य सर्वभूतेषु कञ्श्चिदर्थव्यपाश्रयः’। यहाँ पहले और चौथे चरण में साधक के लिए जो बात कही गयी है, वह तीसरे अध्याय के अठारहवें श्लोक के पूर्वार्द्ध में सिद्ध महापुरुष के लिए कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने- दोनों से ही कोई मतलब नहीं रहता- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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