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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
3. गीता में ईश्वरवाद
अन्य दर्शनों की अपेक्षा गीता में ईश्वरवाद विशेष रूप से आया है। न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा- ये छहो दर्शन केवल जीव के कल्याण के लिए ही हैं; परंतु इनमें ईश्वर का वर्णन मुख्यता से नहीं हुआ है। इनमें से ‘न्यायदर्शन’ में जो कुछ होता है, वह सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है- इस तरह ईश्वर का आदर तो किया गया है, पर मुक्ति में वह ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानता। वह इक्कीस प्रकार के दुखो के ध्वंस को ही मुक्ति बताता है। ‘वैशेषिक दर्शन’ में भी जीव के कल्याण के लिए ईश्वर की आवश्यकता न बताकर आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिकभौतिक- इन तीनों तापों का नाश बताया गया है। ‘योगदर्शन’ में मुख्यरूप से चित्तवृत्तियों के निरोध की बात आयी है। चित्तवृत्तियों के निरोध से स्वरूप में स्थिति हो जाती है। हाँ, चित्तवृत्ति-निरोध में ईश्वर प्राणिधान- (शरणागति-) को भी एक उपाय बताया गया है, पर इस उपाय की प्रधानता नहीं है। ‘सांख्यदर्शन’ और ‘पूर्वमीमांसा दर्शन’ तो जीव के कल्याण के लिए ईश्वर की कोई आवश्यकता ही नहीं समझते। ‘उत्तरमीमांसा- (वेदान्त दर्शन-) में ईश्वर की बात विशेष रूप से नहीं आयी है, प्रत्युत जीव और ब्रह्म की एकता की बात ही विशेष रूप से आयी है। वैष्णवाचार्यों ने भी ईश्वर की विशेषता तो बतायी है, पर जैसी गीता ने बतायी है, वैसी नहीं बतायी।’ गीता में ईश्वर-भक्ति की बात मुख्य रूप से आयी है। अर्जुन जब तक भगवान् के शरण नहीं हुए, तब तक भगवान् ने उपदेश नहीं दिया। जब अर्जुन ने भगवान् के शरण होकर अपने कल्याण की बात पूछी, तब भगवान् ने गीता का उपदेश आरंभ किया। उपदेश के अंत में भी भगवान् ने 'मामेकं शरणं व्रज'[1] कहकर अपनी शरणागति को अत्यंत गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुन ने भी ‘करिष्ये वचनं तव’[2] कहकर पूर्ण शरणागति को स्वीकार किया। गीतोक्त कर्मयोग में भी ईश्वर की आज्ञारूप से ईश्वर की मुख्यता आयी है; जैसे ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’;[3] ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’;[4] ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’;[5] ‘कुरु कर्मेव तस्वात्त्वम्’[6] आदि-आदि। ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोग में भी ईश्वर की अव्यभिचारिणी भक्ति को ज्ञान प्राप्ति का साधन बताया गया है।[7] गीता के मूल पाठ का अध्ययन करने से ही पता चलता है कि जीव के कल्याण के लिए ईश्वर की अत्यधिक आवश्यकता है! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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