- समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां गुरो: सकाशात् प्राप्य विद्याम्।[1]
गुरु से विद्या प्राप्त करके गुरु की ओर धर्म की दृष्टि से देखो।
- मान्या हि गुरव: सर्वे एकपत्न्यस्तथा स्त्रिय:।[2]
सभी गुरुजनों और पतिव्रता नारियों का मान करना चाहिये।
- गुरव: पालनीयास्ते।[3]
तुम्हें गुरुजनों का पालन करना चाहिये।
- सत्कुर्वंति महाभागा गुरुन् सुविगुणानपि।[4]
सज्जन अत्यंत गुणहीन गुरुओं (बड़ों) का भी सम्मान करते हैं।
- गुरुन् सेवेदमायमा।[5]
निष्कपट भाव से गुरु की सेवा करें।
- केनचिन्न च वृत्तेन ह्मावज्ञेयो गुरुर्भवेत्।[6]
कोई भी चेष्टा ऐसी ना करें जिस से गुरु का अपमान होता हो।
- सर्वैरुपायैर्गुरवो हि रक्ष्या:।[7]
सभी उपायों से गुरुजनों की रक्षा करनी चाहिये।
- सदैव हि गुरोर्वृत्तमनुवर्तंति मानवा:।[8]
मनुष्य सदा बड़ों के आचरण का अनुकरण करते हैं।
- अनुमान्य: प्रसाद्यश्च गुरु: क्रंद्ध:।[9]
गुरु क्रोध में हो तो अनुनय-विनय करके उनको प्रसन्न करना चाहिये।
- सम्यड़्.मिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह।[10]
गुरु उचित व्यवहार न करे तो भी गुरु के प्रति अच्छ ही व्यवहार करे
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 76.60
- ↑ वनपर्व महाभारत 205.5
- ↑ वनपर्व महाभारत 249.26
- ↑ विराटपर्व महाभारत 50.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 108.28
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 141.76
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 267.26
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.80
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.81
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