- भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं प्राणे प्रतिष्ठितम्।[1]
भूत, वर्तमान और भविष्य सब कुछ प्राण के आश्रय में ही स्थित है।
- नाभिमध्ये प्राणा: शरीरस्य सर्वे प्रतिष्ठिता:।[2]
शरीर के सारे प्राण नाभि में स्थित हैं।
- न हि प्राणसमं दानं त्रिषु लोकेषु विद्यते।[3]
तीनों लोकों में प्राणदान के समान दूसरा कोई दान नहीं है।
- सर्वस्य दयिता प्राणा:।[4]
सभी को प्राण प्रिय लगते हैं।
- मन: प्राणो निगृह्णीयात् प्राणं ब्रह्मणि धारयेत्।[5]
मन को प्राण में लगायें और प्राण में ब्रह्म में धारण करें।
- प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा।[6]
सभी प्राणियों को वैसे ही अपने प्राण प्रिय हैं जैसे को ऋजु को अपने।
- न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किञ्चन विद्यते।[7]
संसार में प्राणों से बढ़कर प्रिय कोई वस्तु नहीं है।
- प्राणो हि परमो धर्म: स्थितो देहेषु देहिनाम्।[8]
शरीरधारियों के शरीर में रहने वाला प्राण ही परम धर्म है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 213.4
- ↑ वनपर्व महाभारत 213.
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 72.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.62
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 189.16
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 115.19
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 116.22
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 90.59
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