दान का फल (महाभारत संदर्भ)

  • दानं मित्रं मरिष्यत:।[1]

जो मरने वाला है दान उसका मित्र है।

  • दानमेकपदं यश:।[2]

यश का मुख्य आधार है दान।

  • सद्भ्यो यद् दीयते किंचित् तत्परत्रोपतिष्ठते।[3]

सत्पुरुषों को दिये गये दान का फल परलोक में मिलता है।

  • असद्भ्यो दीयते यत्तु तद् दानमिह भुज्यते।[4]

सामान्यजन को जो दान दिया जाता है वह इस लोक में फल देता है।

  • दानानि हि नरं पापान्मोक्षयंति न संशय:।[5]

दान मनुष्य को पाप से मुक्त कर देते हैं इसमें कोई संशय नहीं है।

  • यथा दानं तथा भोग:।[6]

जैसा दान देते हैं वैसा ही भोग मिलता है।

  • दद्यान्मित्रेभ्य: संग्रहार्थं धनानि।[7]

समाज और मित्रों को प्रसन्न रखने के लिये मित्रों को धन देना चाहिये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 313.64
  2. वनपर्व महाभारत 313.70
  3. शांतिपर्व महाभारत 191.4
  4. शांतिपर्व महाभारत 191.4
  5. अनुशासनपर्व महाभारत 59.6
  6. अनुशासनपर्व महाभारत 62.8
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 90.43

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