श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी85. शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
न्यासं विधायोत्प्रणयोऽथ गौरो इधर महाप्रभु से विदा होकर दु:खित हुए चन्द्रशेखर आचार्य नवद्वीप की ओर चले। उनके पैर आगे नहीं पड़ते थे, कभी तो वे रोने लगते, कभी पीछे फिरकर देखने लगते कि सम्भव है, प्रभु दया करके हमारे पीछे-पीछे आ रहे हों। कभी भ्रमवश होकर आप-ही-आप कहने लगते- ‘प्रभो! आप आ गये अच्छा हुआ।’ फिर थोड़ी देर में अपने भ्रम को दूर करने के निमित्त चारों ओर देखने लगते। थोड़ी दूर चलकर बैठ जाते और सोचने लगते- ‘अब मेरे जीवन को धिक्कार है। प्रभु के बिना अब मैं नवद्वीप में कैसे रह सकूँगा? अब मैं अकेला ही लौटकर नवद्वीप कैसे जाऊँ? पुत्र-वियोग से दु:खी वृद्धा शचीमाता जब मुझसे आकर पूछेगी कि मेरे लाल को, मेरे प्राणप्यारे पुत्र को, मेरी वृद्धावस्था के एकमात्र सहारे को, मेरी आँख के तारे को, मेरे दुलारे निमाई को तुम कहाँ छोड़ आये?’ तब मैं उस दु:खिनी माता का क्या उत्तर दूंगा? जब भक्त चारों ओर से मुझे घेरकर पूछेंगे- ‘प्रभु कहाँ हैं? वे कितनी दूर हैं, कब तक आ जायंगे?’ तब इन हृदय को विदीर्ण करने वाले प्रश्नों का मैं क्या उत्तर दूँगा। क्या मैं उनसे यह कह दूँगा कि ‘प्रभु अब लौटकर नहीं आवेंगे, वे तो वृन्दावन को चले गये? हाय! ऐसी कठिन बात मेरे मुख से किस प्रकार निकल सकेगी? यदि वज्र का हृदय बनाकर मैं इस बात को प्रकट भी कर दूँ, तो निश्चय ही बहूत-से भक्तों के प्राणपखेरू तो उसी समय प्रभु के समीप ही प्रस्थान कर जायंगे। भक्तों के बहुत-से प्राणरहित शरीर ही मेरे सामने पड़े रह जायंगे। उस समय मेरे प्राण किस प्रकार शरीर में कैसे रह सकते हैं? खैर, इन सब बातों को तो मेरा वज्र हृदय सहन भी कर सकता हैं, किंतु उस पतिपरायणा पतिव्रता विष्णुप्रिया के करुण-क्रन्दन से तो पत्थर भी पिघलने लगेंगे। जब वह मेरे लौट आने का समाचार सुनेगी, तो अपने हृदय-विदारक रुदन से दिशा-विदिशाओं को व्याकुल करती हुई, पति के सम्बन्ध में जिज्ञासा करती हुई एक ओर खड़ी होकर रुदन करने लगेगी तब तो निश्चय ही मैं अपने को संभालने में समर्थ न हो सकूँगा। सभी लोग मुझे धिक्कार देंगे, सभी मेरे काम की निन्दा करेंगे। जब उन्हें पता चलेगा, कि प्रभु के संन्यास-सम्बन्धी सभी कृत्य मैंने ही अपने हाथ से कराये हैं, जब उन्हें यह बात विदित होगी कि मैंने ही प्रभु को संन्यासी बनाया है तो वे सभी मिलकर मुझे भाँति-भाँति से धिक्कारेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो संन्यास धारण करके प्रेम में बेसुध हुए वृन्दावन जाने की इच्छा से भ्रान्तचित्त होकर राढ़-देश में भ्रमण करते हुए शान्तिपुर में (अद्वैताचार्य घर) पहुँच गये और वहाँ अपने सभी भक्तों के सहित उल्लास प्राप्त किया, उन श्रीगौरचन्द्र के चरणों में हम प्रणाम करते हैं। चै. चरि. म. ली. 3/1