श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्या: श्री पाद प्रकाशानन्द जी के नाम से पाठक पूर्व ही परिचित होंगे। इनकी जन्म भूमि तैलंग देश में थी। दक्षिण देश की यात्रा के समय श्री रंग क्षेत्र के समीप बलगण्डी नामक ग्राम में महाप्रभु नें वेंकट भटृ के यहाँ चातुर्मास व्यतीत किया था। वेंकट भट्ट श्री वैष्णव सम्प्रदाय के वैष्णव थे। उनके भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर प्रभु ने उनके घर चार मास निवास किया। उन्हीं के पुत्र श्री गोपाल भट्ट प्रभु की बड़ी भारी सेवा की थी और पिता के परलोकगमन के अनन्तर ये प्रभु के आज्ञानुसार घर-बार छोड़कर वृन्दावन वास करने चले गये थे और वहीं अन्त तक श्री राधारमण जी की सेवा-पूजा में लगे रहे। श्री गोपाल भट्ट जी के पिता तीन भाई थे। सबसे बडे तो इनके पिता श्री वेंकट भट्ट, मध्यम त्रिमल्ल भट्ट और छोटे ये ही श्री पाद प्रकाशानन्द जी महाराज थे। संन्यास के पूर्व इनका घर का नाम क्या था, इसका पता अभी तक नहीं चला। ये संन्यासी हो जाने पर भी अपने भतीजे गोपाल भट्ट से अत्यधिक स्नेह रखते थे। ये जानते थे कि गोपाल एक होनहार युवक है, कालान्तर में यह जगत्प्रसिद्ध पण्डित़ बन सकेगा, किन्तु जब उन्होंने सुनाओ कि एक बंगाली युवक साधु के संसर्ग से गोपाल शास्त्रों का पठन-पाठन छोड़कर 'कृष्ण-कृष्ण' रटने लगा हैं, तब उन्हें कुछ मानसिक दु:ख भी हुआ ओर उनकी इच्छा उस युवक संन्यासी से शस्त्रार्थ करने की हुई? प्रेम का आकर्षण कई प्रकार से होता है। कभी तो किसी की प्रशंसा सुनकर मन-ही-मन डाह होता है और उसके प्रति मन में एक स्वाभाविक-सा स्नेह उत्पन्न हो जाता है। जिसके गुणों से हम डाह करते हैं उसी के प्रति हृदय में अपने-आप ही प्रेम उत्पन्न हो रहा है, इससे घबड़ाकर हम उस व्यक्ति की खुल्लमखुल्ला निंदा करने लगते हैं। इसमें हम अपनी स्वाभाविक वृत्ति को दबाना चाहते है, किंतु ऐसा करने से वह और भी अधिक उभरती हैं। द्वेषाभाव से ही सही, चित्त उससे मिलने के लिए के सदा व्याकुल-सा बना रहा है और उसका प्रसंग और उसका प्रसंग आने पर रागवश उसके लिये दो-चार कडवे शब्द अपने-आप ही मुंह से निकल पडते हैं। प्रकाशानन्द जी का प्रभु के प्रति ऐसा ही अनुराग हो गया था। जब उन्होंने सुना कि जिस संन्सासी ने हमारे भ्रातृपुत्र गोपाल को बहकाया है, उसी ने सार्वभौम भट्टाचार्य-जैसे परम विद्वान पण्डित को अपने वश में कर रखा है और वे उसे अवतार समझते हैं, इससे उनकी जिज्ञासा और बढ गयी। उसी जिज्ञासा के फलस्वरूप उन्होंने प्रभु के पास व्यंग्यपूर्ण पत्र भेजे थे, जिन्हें पाठक प्रथम ही पढ़ चुके होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अद्वैत मार्ग के पथिकों द्वारा उपास्य और आत्मानन्दसिंहासन पर दीक्षा पाये हुये गोपरमणियों के किसी कुटिल कामुक ने हठात् अपना दास बना लिया। श्रीकृष्णकर्णामृत