भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से भगवती श्रुति कहती है-
अर्थात ‘जिस समय मन के सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती हैं तथा बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती, उसी अवस्था को परमगति कहते हैं।’ किन्तु आरम्भ में यह इन्द्रियादि की निश्चेष्ठता अत्यन्त दुःसाध्य है। अतः पहले वैदिक श्रौत-स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करके अपने देह और इन्द्रियादि की उच्छृंखल चेष्टाओं को सुसंयत करना चाहिये, तभी उनका निरोध करना भी सम्भव होगा। इसके सिवा और भी यह चन्द्र कैसा है? ‘दीर्घदर्शनः-दीर्घेण कालेन फलात्मना दर्शनं यस्य इति दीर्घदर्शनः’। अर्थात जिसका दीर्घकाल पश्चात् फलरूप से दर्शन होता है, क्योंकि कर्मफल होने में भी कुछ देरी अवश्य होती है; अथवा कीटपतंगादि अनेक योनियों के पश्चात् जब जीव को मनुष्य योनि प्राप्त होती है और उनमें भी जब उसका जन्म ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों के अन्तर्गत होता है तब उसे इस धर्म चन्द्र का दर्शन होता है, क्योंकि उसी समय उसे वैदिक श्रौत-स्मार्त्त धर्मों का आचरण करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसलिये भी वह दीर्घदर्शन है। अथवा ‘दीर्घमनपबाध्यं दर्शनं यस्य स दीर्घदर्शनः’ अर्थात! जिसका दर्शन दीर्घअबाध्य है ऐसा यह धर्म चन्द्र है, क्योंकि धर्म का ज्ञान वेदों से होता है और उनका प्रामाण्य किसी से बाधित नहीं है। वह धर्म चन्द्र किस प्रकार प्रकट हुआ? ‘स उडुराजः चर्षणीनामधिकारिजनानां शुचः तत्तदभिलषिताप्राप्तिजन्या आर्तीः शन्तमैः सुखमयैः करैः सुखप्रदैश्च स्वर्गादिफलैर्मृजन् दूरीकुर्वन्नुदगात्’ अर्थात वह चन्द्रमा अधिकारी पुरुषों की अपने अभिलषित पदार्थों की अप्राप्ति के कारण होने वाली दीनता को स्वर्गादि सुखमय और सुखप्रद फलों द्वारा निवृत्त करता हुआ प्रकट हुआ। साथ ही स्वाभाविक काम-कर्मरूप आर्त्ति भी आर्त्ति की जननी होने के कारण आर्त्ति ही है। उसका मार्जन करता हुआ भी प्रकट हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज