भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस पक्ष में यह समझना चाहिये कि जो सुखरूप और सुखप्रद शास्त्रीय काम-कर्मादि हैं, उनसे स्वाभाविक काम-कर्मादि की निवृत्ति होती है। और क्या करता हुआ प्रकट हुआ? “यथा प्रियः श्रीकृष्णः प्रियायाः श्रीवृषभानुनन्दिन्याः मुखमरुणेन विलिम्पन्नुदगात् एवमेवायमपि प्रियो दीर्घदर्शनंच उडुराजोऽरुणेन कर्मजन्येन सुखेन तद्रागेण वा प्राच्याः प्राचीनाया बुद्धेः मुखं सत्त्वात्मकं भागं विलिम्पन् तद्गतदुःखं दूरीकृर्वन्नुदगात्।” जिस प्रकार प्रियतम भगवान कृष्ण अपनी प्रियतमा श्रीवृषभानुनन्दिनी के मुख को अपने करधृत कुंकुम से अनुरंजित करते प्रकट हुए थे उसी प्रकार यह प्रिय और दीर्घदर्शन चन्द्र भी अरुण-कर्मजनित सुख अथवा उसके राग से प्राची-प्राग्भवा बुद्धि के सत्त्वात्मक भाग को लेपित करते हुए अर्थात् उसके दुःख को दूर करते हुए प्रकट हुए। अथवा यों समझो कि ‘प्राच्याः अविवेकदशायाः मुखं जाड्यं स्वजनितेन नित्यानित्यविवेकेन तिरस्कुर्वन्नुदगात्’ अर्थात बुद्धि की जो अविवेक दशा है, उसके मुख यानी जड़ता को अपने से उत्पन्न हुए नित्यानित्य विवेक से तिरस्कृत करता हुआ प्रकट हुआ, क्योंकि वैदिक श्रौत-स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने से चित्त शुद्ध होता है। इससे नित्यानित्य वस्तु विवेक होता है और विवेक से बुद्धि की जड़ता निवृत्त होती है। प्रथम श्लोक में जहाँ ‘ताः’ पद से मुमुक्षुरूपा प्रजा ग्रहण की गयी है वहाँ इस श्लोक का तात्पर्य इस प्रकार लगाना चाहिये कि जिस समय भगवान ने मुमुक्षुरूपा प्रजाओं के हृदयारण्य में श्रुतिरूपा व्रजांगनाओं का आवाहन कर उनके साथ रमण करने का विचार किया उसी समय उस हृदयारण्य को अतिशय सुशोभित करने के लिये ‘उडुराजः विवेकचन्द्रः उदगात्’ उडुराज यानी विवेकरूप चन्द्रमा उदित हुआ। उस विवेकरूप चन्द्र को उडुराज क्यों कहा है? इस पर कहते हैं- उडुस्थानीयासु किंचित्प्रकाशनशीलास्वन्तःकरणवृत्तिषु शमदमादिरूपासु वा राजते अतिशयेन दीप्यते इति उडुराजः’- क्योंकि वह उडुस्थानीया मन्द प्रकाशमयी अथवा शमदमादिरूपा अन्तःकरण की वृत्तियों में राजमान-अतिशय देदीप्यमान है, इसलिये उडुराज है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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