विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजसप्तम-पुरुष 6. ‘धन नहीं धनवान बड़ा’सज्जनों! बलि का जो प्रश्न था, भगवान को उसके लिए कहना पड़ा- ‘राजन! धन बड़ा नहीं होता, धनवान बड़ा होता है।’ बलि- ‘‘भगवन्! धनवान बड़ा होता है धन से’ आपको यह मान्य है न?’’ भगवान्- ‘‘हाँ हाँ मान्य है।’’ बलि- ‘‘तो मैं धनवान हूँ न? मैं अपने आप को ही अर्पित कर रहा हूँ तीसरा पैर पूरा करने के लिये। तीसरा पग मेरे पर धरो और बस मेरा दान पूरा हो गया। ‘जब धन से बड़ा धनवान है’ यह मान्य ही है तो सांगता सिद्धि के लिये जो कुछ चाहिये, उसके सहित मेरा दान पूरा हो गया।’’ दान-पूर्ति और सांगता-सिद्धि के लिये मुझ धनवान के सिर पर ही आपके श्रीचरण प्रतिष्ठित हों!’ भगवान के पास कोई उत्तर नहीं था। इतने में प्रह्लाद जी आ गये। प्रह्लाद ने भगवान की बड़ी स्तुति की। भगवान ने ब्रह्मा जी से कहा- ‘हमने इस[1] का यश दिग्दिगन्त में विकीर्ण-विस्तीर्ण करने के लिए यह सब गड़बड़ किया है। परन्तु इसने कोई गड़बड़ी नहीं किया। इसका ढंग बहुत सौम्य है। भागवत में तो नहीं है, परन्तु दूसरी जगह यह कथा है कि भगवान बोले- ‘भाई तुम्हें क्या दें।’ बलि बोले- ‘‘महाराज! हमारी जिधर भी दृष्टि जाय उधर हम आपका ही दर्शन करें।’’ कहते हैं, राजा बलि की बैठक के बावन दरवाजे हैं। भगवान ने सोचा, न जाने किस दरवाजे पर बलि की दृष्टि चली जाय? तो बावनों दरवाजे पर शंख, चक्र, गदा पद्य धारण किये हुए सर्वान्तरात्मा ब्रह्माण्ड नायक भगवान पहरेदार के रूप में विराजमान हैं। उनकी इस कृपालुता के कारण ही भक्तराज प्रह्लाद ने कहा- ‘‘महाराज! लोग कहते हैं कि आप देवताओं के पक्षपाती हैं, परन्तु हमको तो लगता है कि आप हम असुरों के पक्षपाती हैं। इन्द्र, कुबेर आदि किसी देवता के आप पहरेदार-द्वारपाल बने? नही बने। परन्तु हम असुरों के आप द्वारपाल बन रहे हैं। इसलिये सदा-सर्वदा आप हमारे ही पास रहें।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बलि
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